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बेबाक : धर्म नीति पर हावी ‘राज’अनीति!

अनिल तिवारी
मुंबई

चंद घंटे शेष बचे हैं। सदियों लंबे सनातनी संघर्ष की सफलता के साक्षात्कार को। अयोध्या में रामलला के विग्रह के दीदार को। यह सदियों के संघर्ष का सुखद परिणाम है। उस संघर्ष का जो बाबरी के विध्वंस से लेकर राम मंदिर की पुनर्स्थापना तक जारी रहा। १५२८ के स्वर्स्पूâत आंदोलन से १९९० के सियासी रूपांतरण का साक्षी बना। लिहाजा, इस घटनाक्रम के दूसरे अध्याय को भी जान लेना जरूरी है।
१९९०-९१ आते-आते राम मंदिर आंदोलन का संघर्ष कारसेवा के आह्वान तक पहुंच चुका था। परंतु लालकृष्ण आडवाणी की गिरफ्तारी और राजीव गांधी हत्याकांड की त्रासदी से देश में राजनीतिक परिदृश्य प्रभावित हो चुका था। संसद में सियासी उठा-पटक से सरकार भंग हो गई थी और देश मध्यावधि चुनाव के दौर से गुजर रहा था। जिसमें भाजपा को अपेक्षा से कहीं अधिक लाभ तो मिला पर राजीव हत्याकांड के राजनैतिक दंश ने उसे फिर भी सत्ता तक पहुंचने से रोक ही दिया। केंद्र में कांग्रेस की सरकार लौट चुकी थी। नरसिंह राव के नेतृत्व में। उस दौर में राम जन्मभूमि आंदोलन अपने परवान पर था। १४ अगस्त १९८९ को इलाहाबाद उच्च न्यायालय से विवादित ढांचे को लेकर यथास्थिति बनाए रखने का आदेश था। बावजूद इसके ६ दिसंबर १९९२ को बाबरी का विध्वंस हो ही गया। जनाक्रोश का ऐसा बवंडर आया कि ढांचा उसके सामने टिक न सका और मिट्टी में मिल गया। उस वक्त भावनाओं का जो उफान था उसे न तो कोई काबू ही कर सका, न ही वहां एक छोटा सा मंदिर बनने से भी कोई रोक सका। यह अयोध्या में राम मंदिर आंदोलन के दूसरे अध्याय की शुरुआत थी। मंदिर आंदोलन एक और पायदान चढ़ रहा था।
यहां यह जान लेना बेहद जरूरी है कि १९४९ में, प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में जब बाबरी ढांचे के केंद्रीय गुंबद के नीचे रामलला की मूर्तियां मिली थीं और विवाद अचानक से काफी तेज होने लगा था, तब ७ दिनों के भीतर ही पैâजाबाद अदालत ने उक्त भूमि को विवादित घोषित कर मुख्य दरवाजे पर ताला लगवा दिया था। वहां यथास्थिति बरकरार कर दी गई थी। पैâजाबाद जिला अदालत में १०२ वर्षों की सुनवाई के उपरांत जब १९८७ में मामला इलाहाबाद हाई कोर्ट को स्थानांतरित हुआ, उससे एक वर्ष पहले ही जिला अदालत ने विवादित स्थल का ताला खोलने के आदेश दिए थे। उस पर जितनी तेजी से तत्कालीन राजीव सरकार ने ताले खोले, उतनी ही फुर्ती से १९९२-९३ में भी नरसिंह राव सरकार ने विवादित स्थल के अधिग्रहण के लिए ‘अयोध्या में निश्चित क्षेत्र का अधिग्रहण कानून’ पारित कर दिया था। विध्वंस के मात्र ४ महीनों के भीतर कानून बनाकर राव सरकार ने विवादित २.७७ एकड़ के साथ इर्द-गिर्द की ६०.७० एकड़ भूमि अधिग्रहित कर ली थी और उस स्थल पर एक मंदिर, एक मस्जिद, एक पुस्तकालय, संग्रहालय समेत तीर्थ यात्रियों के लिए अन्य सुविधाएं बनाने को लेकर अध्यादेश लाया जा चुका था। जिसका भाजपा ने विरोध किया और अध्यादेश बेकार हो गया। हालांकि, राव सरकार के इस विचार का सुप्रीम कोर्ट तक ने कालांतर में समर्थन किया था। पंडित नेहरू के कार्यकाल में विवादित स्थर पर ताला लगना, राजीव सरकार के कार्यकाल में ताला खुलना और राव सरकार के कार्यकाल में भूमि अधिग्रहण कानून बना यथास्थिति बरकरार रखना, हिंदू पक्षकारों के हित में ही रहा। क्योंकि इस दौरान विवादित स्थल कोर्ट के अधीन रहा। जिससे वहां किसी भी तरह की छेड़छाड़ की संभावना नगण्य हो गई और पुरातात्विक विभाग को विवादित स्थल पर खुदाई में मंदिर के कई अहम और निर्णायक सबूत सहजता से मिल सके।
१९९४ के उस कालखंड में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ के समक्ष मंदिर मामले की सुनवाई शुरू थी और २४ अक्टूबर १९९४ को ही इस्माइल फारूकी मामले में कोर्ट कह भी चुका था कि मस्जिद इस्लाम में जुड़ी नहीं है। इससे पहले १३ मार्च २००३ को उच्चतम न्यायालय ने भी असलम उर्फ भुरे के मामले में स्पष्ट कर दिया था कि अधिग्रहित स्थल पर किसी भी तरह की धार्मिक गतिविधि की अनुमति नहीं है। यहां २००३ में ही भारतीय पुरातात्विक विभाग ने अयोध्या के स्थल की खुदाई की रिपोर्ट अदालत में पेश की थी, जिसमें स्पष्ट कहा गया था कि बाबरी ढांचे के नीचे दसवीं शताब्दी के मंदिर के अवशेष मिले हैं। फिर भी ३० सितंबर २०१० के अपने पैâसले में हाई कोर्ट की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने संभवत: पैâसला संतुलित करने के उद्देश्य से ही सही, दो:एक के बहुमत से विवादित स्थल पूरी तरह से रामलला विराजमान को न देते हुए, निर्मोही अखाड़े और सुन्नी वक्फ बोर्ड के साथ तीन हिस्सों में बराबर-बराबर बांटने का आदेश दे दिया। इस पैâसले पर जैसा कि अनुमान लगाया जा रहा था ९ मई २०११ को सुप्रीम कोर्ट ने रोक भी लगा दी और फिर एक बार नए सिरे से याचिकाओं पर सुनवाई का दौर शुरू हुआ। इलाहाबाद उच्च न्यायालय में २३ वर्षों की सुनवाई के बाद मामला उच्चतम न्यायालय में पहुंच गया था। जहां धीरे-धीरे ५ वर्षों की सुनवाई भी हो गई। तब तक भाजपा न्यायालय की इस लड़ाई का किसी भी तरह से कानूनी हिस्सा नहीं थी। २६ फरवरी २०१६ को सुब्रह्मण्यम स्वामी ने उच्चतम न्यायालय में एक याचिका दायर करके विवादित स्थल पर राम मंदिर बनाए जाने की मांग की। चूंकि अप्रैल २०१६ में स्वामी बतौर भाजपा के प्रतिनिधि राज्यसभा सदस्य नियुक्त हुए थे, अत: भाजपा इसका श्रेय तो ले सकती है, परंतु यह स्वामी ने अपनी व्यक्तिगत हैसियत से किया था, न कि पार्टी की पेशकश पर, इसे भी भुलाया नहीं जा सकता।
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट में तमाम याचिकाओं की सुनवाई के दौरान २१ मार्च २०१७ को मुख्य न्यायाधीश जेएम खेहर ने भी ‘आउट ऑफ कोर्ट सेटलमेंट’ का सुझाव दिया और भाजपा के शीर्ष नेताओं पर बाबरी ढहाने की आपराधिक साजिश के तहत आरोप भी बहाल कर दिए। हालांकि, तब भी शासकीय तौर पर मामले में कोई गर्माहट नहीं आई और केंद्र सरकार की सुस्ती यूं ही जारी रही। यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कार्यकाल था। ७ अगस्त २०१७ को सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के लिए तीन सदस्यीय पीठ का गठन किया। कानूनी तौर पर मामला धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था पर सरकारी तौर पर सुस्ती बरकरार थी। २०१४ में केंद्र में सत्ता परिवर्तन हो चुका था। भाजपा बहुमत से सरकार बना चुकी थी। लोगों को उम्मीद थी कि वह इस पर कोई निर्णायक भूमिका लेगी परंतु ऐसा नहीं हुआ। नरसिंह राव सरकार के कार्यकाल में भाजपा ने जिस अध्यादेश में कमियां गिनार्इं थीं, वो चाहती तो उसमें ही सुधार करके सदन के माध्यम से कानून लाकर राम मंदिर निर्माण का रास्ता प्रशस्त कर सकती थी, परंतु ऐसा नहीं हुआ। जब एक-एक करके सरकार के ४ साल बीत गए और फिर से आम चुनाव सिर पर आ गए, तब भी भाजपा की सरकार ने इस पर कोई पहल नहीं की तो उन्हें कुंभकर्णी नींद से जगाने और उनके वादों-इरादों को याद दिलाने के लिए शिवसेना ने नए सिरे से अयोध्या मुहिम शुरू की।
चुनाव से ठीक ६ माह पहले नवंबर २०१८ में शिवसेनापक्षप्रमुख उद्धव ठाकरे ने सपरिवार अयोध्या जाकर रामलला के दर्शन किए, सरयू मां की आरती की और संत-महंतों की आशीर्वाद सभा के साथ सरकार को, ‘पहले मंदिर, फिर सरकार’ की याद दिलाई। शिवसेना और राम प्रेमी जनता के दबाव के आगे सरकार को झुकना पड़ा। सरकारी स्तर पर हलचल तेज हुई। मध्यस्थता पैनल का गठन हुआ और ८ मार्च २०१९ को सुप्रीम कोर्ट ने मामले को मध्यस्थता के लिए पैनल के पास भेजा और पैनल को ८ सप्ताह के भीतर कार्यवाही खत्म करने का आदेश दिया। १ अगस्त को मध्यस्थता पैनल ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें वह मामले का समाधान निकालने में विफल साबित हुई। अगले ही दिन से सुप्रीम कोर्ट ने मामले की रोजाना सुनवाई शुरू की और १६ अक्टूबर को सुनवाई पूरी कर ली। ९ नवंबर २०१९ को पांच सदस्यीय खंडपीठ ने विवादित २.७७ एकड़ भूमि का हक रामलला विराजमान को दे दिया।
एक तरह से इस पैâसले में भी वही हुआ, जो १९९३ में कांग्रेस की नरसिंह राव सरकार ने अध्यादेश में सुझाया था और उत्तर प्रदेश शिया केंद्रीय वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष वसीम रिजवी व अन्य कई मुस्लिम नेताओं ने मान्य भी किया था। सुप्रीम कोर्ट ने सर्वसम्मत पैâसले में यथार्थ और आस्था के बीच संतुलन कायम करके ‘अयोध्या राजनीति’ छोड़कर आगे बढ़ने की राह दिखाई। पैâसले को संतुलित करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद १४२ के तहत नई मस्जिद के लिए ५ एकड़ जमीन देने का आदेश भी दिया। इस दौरान तमाम याचिकाओं पर सुनवाई हुई। पैâजाबाद जिला अदालत में १०२ साल, इलाहाबाद हाई कोर्ट में २३ साल और सुप्रीम कोर्ट में ९ सालों तक जिरह हुई। जिसमें कहीं भी भाजपा का कोई उल्लेखनीय योगदान नहीं रहा। न जमीनी संघर्ष में, न ही न्यायालयीन लड़ाई में। भाजपा ने १९८८-८९ से १९९२ तक जो भी आक्रामक संघर्ष किया, वह केवल अपने राजनीतिक लाभ के लिए, तो कभी हिंदू जन चेतना जगाने के नाम पर आंदोलन खिंचता रहा। मुस्लिमपरस्त छोटे-छोटे दलों को अपनी राजनीति चमकानी थी। कुछ को तो अपनी राजनीतिक जमीन बनाने के लिए आक्रामक मुद्दों की आवश्यकता थी। सो, दोनों ही ओर से राजनीतिक संघर्ष बढ़ता गया। कई प्रमाण मिलते हैं जहां कहा जाता है कि यदि भाजपा चाहती तो शायद दोनों पक्षों में कभी की सुलह हो चुकी होती और राम मंदिर का निर्माण बहुत पहले ही हो चुका होता। परंतु जब कोई समझौता नहीं हो सका तो सभी पक्षों ने मान्य कर लिया कि अब न्यायालय चाहे जो पैâसला दे वह उन्हें मान्य होगा। और हुआ भी वही। सभी ने न्यायालय के पैâसले को स्वीकार किया और देश में सर्वसम्मति का मार्ग प्रशस्त हुआ। राष्ट्र ने परिपक्वता का परिचय दिया परंतु अगले तीन से चार वर्षों में ही राजनीति की अति हो गई।
लिहाजा, राम मंदिर आंदोलन के दूसरे अध्याय को देखकर साफ हो जाता है कि भाजपा ने हमेशा इस पर राजनीति की, जबकि कांग्रेस ने नीति से राज और शिवसेना ने संघर्ष। राजीव गांधी की सरकार हो या नरसिंह राव की, सभी ने नीति संगत पैâसले लिए। जो अंतत: हिंदू पक्षकारों के हित में ही साबित हुए। यदि आज सुप्रीम कोर्ट का पैâसला मोदी सरकार की उपलब्धि कहा जाता है तो अतीत के तमाम पैâसले भी कांग्रेस की तत्कालीन सरकारों की उपलब्धि माने जा सकते हैं परंतु अतीत की सरकारों ने कभी इसे राजनीतिक इवेंट नहीं बनाया जैसा कि आज बनाया जा रहा है। इस पार्श्वभूमि में कुछ यक्ष प्रश्न उठना स्वाभाविक हैं कि क्या हम कभी आस्था के मुद्दों का राजनीतिक लाभ उठाने से बचेंगे? प्रगतिशील सामाजिक परिवेश की ओर कदम बढ़ाएंगे? भावनाओं की राजनीति से तौबा करेंगे या फिर कोई न कोई भावनात्मक दांव चलते ही रहेंगे? और हम कब परिपक्व राष्ट्र होने की जिम्मेदारियों का निर्वहन भी करेंगे और राजनीतिक अवसरवादिता से पीछा छुड़ाएंगे? और सबसे महत्वपूर्ण यह कि देश की आर्थिक, सामाजिक और नैतिक खुशहाली के लिए ये सरकारें कब काम करेंगी?
कुल मिलाकर देखा जाए तो राम मंदिर कभी किसी की प्राथमिकता में नहीं था यदि यह किसी की प्राथमिकता में था तो इस देश के करोड़ों हिंदुओं और हिंदूहृदयसम्राट बालासाहेब ठाकरे की। यदि १९९२ में शिवसेना ने संघर्ष को बल नहीं दिया होता तो शायद आतताइयों की निशानी न मिटी होती और यदि २०१८ में शिवसेना ने सत्ता पर दबाव न बनाया होता तो शायद सरकार ने न्यायालयीन प्रयास तेज न किए होते। शिवसेनाप्रमुख सिर्फ श्रीराम का मंदिर चाहते थे, उसे राजनीति के लिए भुनाना नहीं। सो, आंदोलन में अपना सर्वस्व झोंक देने वाली शिवसेना को इसकी कीमत अदा करनी पड़ी तो भाजपा को इसका राजनैतिक लाभ होता रहा। १९९२ का बाबरी विध्वंस हो या १९९३ के दंगों के बाद उपजी परिस्थिति, हर बार विष ‘शिव’ के कंठ में समाया और कमल हमेशा पाक-साफ बना रहा। वही परिपाटी आज भी जारी है।

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