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संपादकीय : चोरों की सरकार को संरक्षण …एड. नार्वेकर का ‘पर्सनल लॉ’!

यह आश्चर्य की बात है कि विधानसभा अध्यक्ष नार्वेकर ने कहा कि विधायिका की संप्रभुता बनाए रखना मेरा कर्तव्य है। सर्वोच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र के विधायकों की अपात्रता के मामले में विधानसभा अध्यक्ष पर ‘ट्रिब्यूनल’ की भूमिका सौंपी है। अध्यक्ष मध्यस्थ की भूमिका में हैं और वह सुनवाई संबंधी निर्णय लेने के मामले में टाइमपास करने की नीति अपना रहे हैं। अध्यक्ष के इस ‘टाइमपास’ वेब सीरीज पर सर्वोच्च न्यायालय ने भले ही नाराजगी व्यक्त की हो लेकिन अध्यक्ष यह झुनझुना बजाते जा रहे हैं कि मैं न्यायालय का आदर करूंगा। सही समय पर फैसला लूंगा और विधायिका संप्रभु है। एड. नार्वेकर जो झुनझुना बजा रहे हैं वह झुनझुना भाजपा ने उनके हाथों में दिया था और वह ‘पिंजरा’ फिल्म के मास्टर के जैसे मंच पर आकर झुनझुने का सुर आलाप रहे हैं। इसी बात पर सर्वोच्च न्यायालय ने इस संप्रभु महाशय को फटकार लगाई है और कम बोलने की सलाह दी है। विधायिका की संप्रभुता को बनाए रखने का मतलब राजनीति के चोर-लुटेरों को समर्थन देकर उनका संरक्षण करना नहीं है। महाराष्ट्र में पिछले सालभर से एक असंवैधानिक सरकार सत्ता में है और विधानसभा अध्यक्ष इस असंवैधानिक सरकार के संरक्षक बने हुए हैं। इसे विधायिका की संप्रभुता कैसे माना जाए? सर्वोच्च न्यायालय के आदेश और निर्देशों का पालन नहीं करनेवाले ‘ट्रिब्यूनल’ एक प्रकार से अराजकता को न्योता दे रहे हैं। ट्रिब्यूनल सर्वोच्च न्यायालय से ऊपर नहीं है। महाराष्ट्र में एक समलैंगिक पद्धति की सरकार चल रही है और सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे विवाह को मान्यता नहीं दी है। ‘ट्रिब्यूनल’ को इसे अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। एड. नार्वेकर मध्यस्थ की भूमिका में हैं और उनका जन्म भी नहीं हुआ था, तब से विधायिका की संप्रभुता जीवित है। संप्रभुता इत्यादि का प्रवचन दल-बदल के लंबे अनुभव वाले एड. नार्वेकर ट्रिब्यूनल से सुनने की जरूरत नहीं है। नार्वेकर ट्रिब्यूनल की भूमिका ऐसी दिखाई दे रही है मानो, सर्वोच्च न्यायालय चाहे कुछ भी कहे पर सुनेंगे नहीं। एड. नार्वेकर कहते हैं कि मैं संविधान को माननेवाला व्यक्ति हूं। लेकिन पिछले कुछ दिनों के उनके बर्ताव को देखकर लगता है कि उनका संविधान से कोई भी लेना-देना नहीं है। संविधान के १०वें शेड्यूल के अनुसार, शिवसेना से फूटे ४० विधायक अपात्र हो रहे हैं और ऐसा स्पष्ट निर्देश सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए जाने के बावजूद एड. नार्वेकर संविधान को मानने के लिए तैयार नहीं हैं। सर्वोच्च न्यायालय को न मानना सिर्फ मनमानी ही नहीं, बल्कि दिमागी संतुलन बिगड़ जाने की निशानी है। बेईमानों की सरकार बचाना यह संविधान की रक्षा नहीं, बल्कि देश के साथ विश्वासघात है। नार्वेकर ट्रिब्यूनल को कानून की समझ नहीं होने के साथ-साथ वह किसी जिहादी की तरह बर्ताव कर रहे हैं। देश चलाने के लिए मोदी-शाह ने उनके लिए स्वतंत्र ‘पर्सनल लॉ’ बनाया होगा और नार्वेकर ट्रिब्यूनल इसी ‘पर्सनल लॉ’ का इस्तेमाल कर रहे हैं। विधायकों की अयोग्यता के बारे में टाइमपास की नीति स्वीकार कर नार्वेकर खुद क्या साबित करना चाहते हैं, लोगों के दिल से वह उतर चुके हैं और भविष्य में पद से उतरते ही उनका शांति से घूमना-फिरना मुश्किल हो जाएगा इस कदर लोगों में चिढ़ है। विधानसभा अध्यक्ष किसी दल का नहीं होता, वह संप्रभु होता है। फिर ऐसे में नार्वेकर ट्रिब्यूनल बार-बार दिल्ली जाकर भाजपा नेताओं से क्यों मुलाकात करते रहते हैं? सत्ताधारियों के असंवैधानिक मनमाना कारभार से आम लोगों के मूलभूत अधिकारों की रक्षा इसी उद्देश्य से सर्वोच्च न्यायालय काम करता है। इसी सर्वोच्च न्यायालय पर भी अब दबाव का साया मंडरा रहा है। जिस संप्रभुता का झुनझुना नार्वेकर ट्रिब्यूनल बजा रहे हैं, उन्हें केशवानंद भारती मामले का पैâसला समझ लेना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय के सात न्यायाधीशों ने बहुमत से यह पैâसला सुनाया था कि किसी भी मूलभूत अधिकार को दबाने या संविधान के किसी भी अनुच्छेद में बदलाव करने का अधिकार भले संसद को हो तो भी उसे संविधान के मूलभूत दायरे में रहकर ही बदलना होगा, लेकिन उसे नष्ट करने का अधिकार नहीं है। अर्थात संविधान को, सर्वोच्च न्यायालय दरकिनार कर आप अपने संप्रभुता के चोंचले नहीं पाल सकते। वैसे भी पिछले नौ वर्षों से संसद व विधानमंडल की संप्रभुता ही नहीं है। संसद की संप्रभुता ही नाममात्र की रह गई है। मोदी-शाह जो कहेंगे वही संप्रभुता है। संविधान के मूलभूत स्वरूप बदलने का संसद को कोई अधिकार नहीं है, ऐसा पैâसला सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए जाने के बावजूद इसे अपना अधिकार बताना, संसद या विधायिका द्वारा घोषित करना, केवल संवैधानिक रस्सी खींच है। यह एक बेवजह खलबली करना और गैर जिम्मेदाराना प्रयास है। महाराष्ट्र में विधानसभा अध्यक्ष सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त ‘ट्रिब्यूनल’ वाली जिम्मेदारी तो निभा ही नहीं रहे हैं, बल्कि दूसरी ही राजनैतिक खलबली मचाकर चोरों की सरकार को संरक्षण दे रहे हैं। यह विधानमंडल की संप्रभुता न होकर एक प्रकार से अप्रतिष्ठा ही है! सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें फटकार लगाई है, लेकिन बावजूद इसके यह महाशय अपनी हेकड़ी छोड़ नहीं रहे हैं यह एक गलत संकेत है।

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