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महंगाई और बेरोजगारी बड़ी चुनौती

रामदिनेश यादव
हिंदुस्थान में अभी तक यही परंपरा रही है कि बजट से एक दिन पहले आर्थिक सर्वेक्षण प्रकाशित किया जाता है। उसमें बताया जाता है कि पिछले बजट में सरकार ने जो लक्ष्य तय किए थे, उन्हें कहां तक हासिल किया जा सका है। इस तरह आर्थिक सर्वेक्षण एक तरह से सरकार के पूरे एक वर्ष के प्रदर्शन का मूल्यांकन भी करता है, मगर इस वर्ष वह परंपरा बदल दी गई। समीक्षा रिपोर्ट में कहा गया है कि चालू वित्त वर्ष में भारत की विकास दर सात फीसद रहेगी और अगले तीन वर्षों में पांच लाख करोड़ डॉलर के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी के साथ दुनिया की तीसरी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। अभी ३.७ लाख करोड़ डॉलर की अनुमानित जीडीपी के साथ दुनिया की पांचवीं अर्थव्यवस्था है। २०३० तक इसके सात लाख करोड़ डॉलर तक पहुंचने और २०४७ तक विकसित राष्ट्र बनने की उम्मीद जताई गई है।
समीक्षा रिपोर्ट में लगभग वही बातें कही गई हैं, जो पिछले काफी अरसे से कही जा रही हैं। पांच लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था बनना सरकार का महत्वाकांक्षी लक्ष्य है। दूसरी तरफ देखा जाए तो अभी जिस तरह दुनिया मंदी के दौर से गुजर रही है, मगर उसके बीच भारतीय अर्थव्यवस्था का रुख ऊपर की तरफ बना हुआ है, उसमें इसके पांच लाख करोड़ डॉलर के लक्ष्य तक पहुंचना मुश्किल नहीं माना जा रहा।
हालांकि, दुनिया की सभी रेटिंग एजेंसियां मानती हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही है और इस वर्ष इसके सात फीसद से ऊपर रहने का अनुमान है। मगर व्यापार घाटे और राजकोषीय घाटे से पार पाना अब भी कठिन बना हुआ है। रोजगार के अपेक्षित नए अवसर सृजित न हो पाने के कारण बड़ी संख्या में लोगों की क्रयशक्ति कमजोर हुई है। देखा जाए तो महंगाई और बेरोजगारी पर पूर्णत: नकेल लगा पाने में सरकार के सामने अभी भी बहुत रोड़े हैं, जिसको लांघ पाना इतना आसान नहीं है।
समीक्षा रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले दस वर्षों में कई उल्लेखनीय सुधार हुए हैं, जिसका असर आर्थिक प्रगति पर स्पष्ट देखा जा रहा है। रिपोर्ट के मुताबिक, घरेलू मांग और निवेश बढ़ा है, जिसके चलते पिछले तीन वर्षों से विकास दर सात फीसद से अधिक रही है। हालांकि, समीक्षा रिपोर्ट में कही गई बातों से कितने आर्थिक विशेषज्ञ सहमत होंगे यह देखने की बात है।
जैसा कि एक संतुलित अर्थव्यवस्था में विकास दर की जो गति होनी चाहिए, वह लड़खड़ाती नजर आती है। महंगाई और बेरोजगारी की दर पर काबू पाना अब भी बड़ी चुनौती है। इसलिए घरेलू मांग और निवेश का बढ़ना कुछ असंगत जान पड़ता है। औद्योगिक उत्पादन क्षेत्र में उत्साह नजर नहीं आ रहा। निर्माण और विनिर्माण क्षेत्र भी उतार-चढ़ाव के दौर से गुजर रहे हैं। ऐसे में विकास दर में संतुलन को लेकर सवाल बने रहते हैं।
दूसरी तरफ बाजार में पूंजी का प्रवाह संतुलित नहीं हो पा रहा, जिसके चलते भारतीय रिजर्व बैंक को रेपो दरों के मामले में कड़ा रुख अपनाए रखना पड़ रहा है। आय में असमानता बढ़ रही है, जो बड़ी चिंता का विषय है। इसलिए गरीबों की संख्या में कमी आने को लेकर भी संदेह जताए जा रहे हैं। ऐसे में अर्थव्यवस्था की गुलाबी तस्वीर निस्संदेह उत्साह पैदा करती है, पर बुनियादी कमजोरियों को दूर किए बिना विकसित राष्ट्र के दावे शायद अधूरे ही रहें।

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