जिंदगी के सफर में निकला हूं
मैं भी औरों की तरह, औरों से जुदा नहीं हूं…
कहां पहुंचूंगा, खबर नहीं,
किसे पता है, ये टेढ़े-मेढ़े रास्ते
ये छुपे हुए मोड़ हमें किस गली-मुहल्ले ले जाएंगे,
जहां न अपनी मंजिल होगी न किनारा।
या बीच सफर में ही कदम लड़खड़ा जाएंगे…
कौन जाने उसकी मंजिल का फासला,
उसके पैरों के निशान से कितनी दूर है।
मंजिल!… कौन सी मंजिल… किसकी मंजिल?
स्थाई नहीं है, कोई भी ठिकाना / आशियाना…
राही नहीं जानता उसका, थका देनेवाला सफर
कितना उलझा हुआ है या उसी ने आप ही उलझाया है…
सोच रहा हूं…अभिप्राय क्या है सफर का?
जिंदगी प्रतियोगिता या प्रतिस्पर्धा भी तो नहीं है,
फिर आगे निकल जाने की होड़, ये कैसी मची है?
हरेक मन में विजयी मंशा पल रही है…
पलनी ही चाहिए…परंतु प्रथम अपनी योग्यता / काबिलियत को अच्छी तरह परख लो
पीछे कोई नहीं छूटना चाहता…कोई नहीं,
पर छूट जाता है…हारना कोई नहीं चाहता है
पर हार जाता है…लेकिन हार मानता नहीं है।
इंसान की यह भी एक कमजोरी है।
नुक्ताचीनी कर, टकराव वाली स्थिति हम-आप उत्पन्न कर रहे हैं, दोष भाग्य पर मढ़ रहे हैं।
सफर अभी भी अधूरा है, जीते जी पूरा होगा नहीं…जब तक स्वयं आदमी पूरा होगा नहीं…
क्योंकि इच्छाएं / ख्वाहिशें अनंत हैं
एक अरमान पूरा होते-होते, नई आरजू दिल में पनपने लगती है… व्यक्ति अधूरा ही पूरा होता है।
सो ही हमारी बहुत सारी अभिलाषाएं / तमन्नाएं
अधूरी ही इंसान के साथ भस्म / दफन हो जाती हैं।
गोया दशा स्वस्थ होगी तो दिशा उम्मीद जगाएगी
वर्ना सफर की घड़ियां वक्त से जुदा हो जाएंगी।
सारी समझ मन की अवस्था से उपजती है।
जान लें मन ही प्रधान है / सूचक है / कर्ता है।
मुखिया है, इस हाड़-मास नामक ढांचे का।
कदम अभी उठे ही थे, मन पहुंच गया गंगा नहाने…सबसे पवित्र कहलाने…श्रेष्ठता का गुमान बढ़ाने… कभी तो चाय की प्याली होंठ छूने से चूक जाती है।
चलने से ज्यादा दौड़ रहा है अधीर आदमी
एक अर्थहीन दौड़ व्यर्थ ही थका रही है जिंदगी को।
फिर भी घसीटते जा रहा हैं, दुबारा हाथ न लगने वाली देहरूपी जिंदगी को।
अपने से दूर अपनों से परे… सुकून की तलाश में,
पता नहीं किस छोर की ओर कदम बढ़ रहे हैं।
यहां सफलता नहीं मिली तो वहां मिलेगी?… संदेह बरकरार है और रहेगा।
जो ठिकाना अनिश्चित हैं…..है भी या नहीं रब जानें
जिस ठौर का अता-पता नहीं, सुकून की हम क्या बात करें।
कोई अर्थ नहीं बनता है।
दरअसल, हम जी नहीं रहे हैं… महज जैसे-तैसे जिंदगी ढो रहे हैं
सिर पर तनावों की बोझिल गठरी उठाए,
दिशाहीन सरक रहे हैं…इसी के साथ अतिशय कीमती पल-छिन हमारे कदमों तले रौंदे जा रहे हैं।
वो इसलिए क्योंकि हमने जिंदगी की गरिमा को
ठीक से जाना-परखा-समझा नहीं है।
विषय व्यापक है, शेष निकट भविष्य में।
त्रिलोचन सिंह अरोरा
डोंबिवली