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माता-पिता के जीवन में उदासी नहीं, उमंग हो

ललित गर्ग, नई दिल्ली

विश्व माता-पिता (अभिभावक) दिवस १ जून को मनाया जाता है। यह विश्वभर के उन अभिभावकों को सम्मान देने का दिन है, जो अपने बच्चों के प्रति निस्वार्थ भाव से समर्पित हैं तथा जीवनभर त्याग करते हुए बच्चों का पालन-पोषण करते हैं। बच्चों की सुरक्षा, विकास व समृद्धि के बारे में सोचते हैं। बावजूद बच्चों द्वारा माता-पिता की लगातार उपेक्षा, दुर्व्यवहार एवं प्रताड़ना की स्थितियां बढ़ती जा रही हैं, जिन पर नियंत्रण के लिए यह दिवस मनाया जाता है। भारत में जहां कभी संतानें पिता के चेहरे में भगवान और मां के चरणों में स्वर्ग देखती थीं, आज उसी देश में संतानों की उपेक्षा के कारण बड़ी संख्या में बुजुर्ग माता-पिता की स्थिति दयनीय होकर रह गई है।
बुजुर्गों के साथ दुर्व्यवहार किस सीमा तक, कितना, किस रूप में और कितनी बार होता है तथा इसके पीछे कारण क्या है, इस पर हुए शोध में पता चला कि ८२ प्रतिशत पीड़ित बुजुर्ग अपने परिवार के सम्मान के चलते इसकी शिकायत नहीं करते। शोध के निष्कर्षों के अनुसार, अभिभावकों पर होनेवाले अत्याचार एवं दुर्व्यवहार की स्थितियां चिंतनीय है, जिनमें परिजनों एवं विशेषत: बच्चों के हाथों बुजुर्ग का अपमान (५६ प्रतिशत), गाली-गलौज (४९ प्रतिशत), उपेक्षा (३३ प्रतिशत), आर्थिक शोषण (२२ प्रतिशत) और शारीरिक उत्पीड़न का शिकार (१२ प्रतिशत) होते हैं और ऐसा करनेवालों में बहुओं (३४ प्रतिशत) की अपेक्षा बेटों (५२ प्रतिशत) की संख्या अधिक है, जबकि पिछले सर्वेक्षणों में बहुओं की संख्या अधिक पाई गई है। प्रौद्योगिकी ने भी बुजुर्गों की उपेक्षा और उनसे दुर्व्यवहार में अपना योगदान दिया है और संतानें अपने माता-पिता की अपेक्षा मोबाइल फोन और कंप्यूटरों को अधिक तवज्जो देती हैं। इसका बुजुर्गों के जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। ६० प्रतिशत से अधिक बुजुर्गों के अनुसार, बच्चों और पोतों की मोबाइल फोनों और कंप्यूटरों पर व्यस्तता के कारण वे उनके साथ कम समय बिता पाते हैं और ७८ प्रतिशत बुजुर्गों ने कहा कि सोशल मीडिया ने परिवार के साथ बिताया जाने वाला उनका समय छीन लिया है। इन तथ्यों से स्पष्ट है कि भारत में आज अधिकांश बुजुर्गों की स्थिति कितनी दयनीय होकर रह गई है।
अमृतसर के डिप्टी कमिश्नर कमलदीप सिंह का कहना है कि उनके पास हर समय संतानों द्वारा बुजुर्गों की उपेक्षा संबंधी ४-५ शिकायतें निपटारे के लिए आती हैं, जो इस समस्या की गंभीरता का प्रमाण है। उनके अनुसार, ‘बुजुर्गों की उपेक्षा संबंधी यदि ये आंकड़े सही हैं तो इसका मतलब यह है कि हमारे लिए न सिर्फ अपने बुजुर्गों के सम्मानजनक जीवन-यापन के लिए बहुत कुछ करना बाकी है, बल्कि बच्चों में अपने माता-पिता और बुजुर्गों का सम्मान करने के संस्कार भरना भी अत्यंत आवश्यक है। लिहाजा, बच्चों को बचपन से ही इसकी शिक्षा देनी चाहिए।’ संवेदनहीन होते परिवारों की इन स्थितियों को देखते हुए केंद्र और राज्य सरकारों ने ‘अभिभावक और वरिष्ठ नागरिक देखभाल व कल्याण’ संबंधी कानून बनाए हैं। भारत में अभिभावकों की सेवा और उनकी रक्षा के लिए भी कई कानून और नियम बनाए गए हैं। २००७ में माता-पिता एवं वरिष्ठ नागरिक भरण-पोषण विधेयक संसद में पारित किया गया है। इसमें माता-पिता के भरण-पोषण, वृद्धाश्रमों की स्थापना, चिकित्सा सुविधा की व्यवस्था और वरिष्ठ नागरिकों के जीवन और संपत्ति की सुरक्षा का प्रावधान किया गया है। लेकिन इन सबके बावजूद हमें अखबारों और समाचारों की सुर्खियों में माता-पिता की हत्या, लूटमार, उत्पीड़न एवं उपेक्षा की घटनाएं देखने को मिल ही जाती हैं।
जरूरत केवल भारत में ही नहीं है, बल्कि विश्व में अभिभावकों के साथ होनेवाले अन्याय, उपेक्षा और दुर्व्यवहार पर लगाम लगाने की भी है। प्रश्न है कि दुनिया में अभिभावक दिवस मनाने की आवश्यकता क्यों हुई? क्यों अभिभावकों की उपेक्षा एवं प्रताड़ना की स्थितियां बनी हुई हैं? चिंतन का महत्वपूर्ण पक्ष है कि अभिभावकों की उपेक्षा के इस गलत प्रवाह को वैâसे रोकें, क्योंकि सोच के गलत प्रवाह ने न केवल अभिभावकों का जीवन दुश्वार कर दिया है, बल्कि आदमी-आदमी के बीच के भावनात्मक फासलों को भी बढ़ा दिया है। विचारणीय है कि अगर आज हम माता-पिता का अपमान करते हैं, तो कल हमें भी अपमान सहना होगा। समाज का एक सच यह भी है कि जो आज जवान है, उसे कल माता-पिता भी होना होगा और इस सच से कोई नहीं बच सकता। हमें समझना चाहिए कि माता-पिता परिवार एवं समाज की अमूल्य विरासत होते हैं। आखिर आज के माता-पिता अपने ही घर की दहलीज पर सहमे-सहमे क्यों खड़े हैं, उनकी आंखों में भविष्य को लेकर भय क्यों हैं, असुरक्षा और दहशत क्यों है, दिल में अंतहीन दर्द क्यों है? इन त्रासद एवं डरावनी स्थितियों से माता-पिता को मुक्ति दिलानी होगी। सुधार की संभावना हर समय है। हम पारिवारिक जीवन में माता-पिता को उचित सम्मान दें, इसके लिए सही दिशा में चलें, सही सोचें, सही करें। इसके लिए आज विचार क्रांति ही नहीं, बल्कि व्यक्ति क्रांति की जरूरत है।
विश्व में इस दिवस को मनाने के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं, परंतु सभी का मुख्य उद्देश्य यह होता है कि वे अपने माता-पिता के योगदान को न भूलें और उनको अकेलेपन की कमी महसूस न होने दें। हमारा भारत तो माता-पिता को भगवान के रूप में मानता है। इतिहास में कई ऐसे उदाहरण हैं कि माता-पिता की आज्ञा से भगवान श्रीराम जैसे अवतारी पुरुषों ने राजपाट त्यागकर वनों में विचरण किया, मातृ-पितृ भक्त श्रवण कुमार ने अपने अंधे माता-पिता को कांवड़ में बैठाकर चारधाम की यात्रा कराई। फिर क्यों आधुनिक समाज में माता-पिता और उनकी संतान के बीच दूरियां बढ़ती जा रही है। आज के माता-पिता समाज-परिवार से कटे रहते हैं और सामान्यत: इस बात से सर्वाधिक दुखी हैं कि जीवन का विशद अनुभव होने के बावजूद कोई उनकी राय न तो लेना चाहता है और न ही उनकी राय को महत्व देता है। समाज में अपनी एक तरह से अहमियत न समझे जाने के कारण हमारे माता-पिता दुखी, उपेक्षित एवं त्रासद जीवन जीने को विवश हैं। माता-पिता को इस दुख और कष्ट से छुटकारा दिलाना आज की सबसे बड़ी जरूरत है। जैसा कि जेम्स गारफील्ड ने कहा भी है कि यदि वृद्धावस्था की झुर्रियां पड़ती हैं तो उन्हें हृदय पर मत पड़ने दो। कभी भी आत्मा को वृद्ध मत होने दो।
तथाकथित व्यक्तिवादी एवं सुविधावादी सोच ने समाज की संरचना को असभ्य, अशालीन, बदसूरत एवं संवेदनहीन बना दिया है। सब जानते हैं कि आज हर इंसान समाज में खुद को बड़ा दिखाना चाहता है और दिखावे की आड़ में माता-पिता उसे अपनी शान-शौकत एवं सुंदरता पर एक काला दाग दिखते हैं। आज बन रहा समाज का सच डरावना एवं त्रासद है। डिजरायली का मार्मिक कथन है, ‘यौवन एक भूल है, पूर्ण मनुष्यत्व एक संघर्ष और वार्धक्य एक पश्चाताप।’ माता-पिता के जीवन को पश्चाताप का पर्याय न बनने दें। आज माता-पिता को अकेलापन, परिवार के सदस्यों द्वारा उपेक्षा, तिरस्कार, कटुक्तियां, घर से निकाले जाने का भय या एक छत की तलाश में इधर-उधर भटकने का गम हरदम सालता रहता है। अभिभावकों को लेकर जो गंभीर समस्याएं आज पैदा हुई हैं, वह अचानक ही नहीं हुई, बल्कि उपभोक्तावादी संस्कृति तथा महानगरीय अधुनातन बोध के तहत बदलते सामाजिक मूल्यों, नई पीढ़ी की सोच में परिवर्तन आने, महंगाई के बढ़ने और व्यक्ति के अपने बच्चों और पत्नी तक सीमित हो जाने की प्रवृत्ति के कारण बड़े-बूढ़ों के लिए अनेक समस्याएं आ खड़ी हुई हैं। अभिभावकों के लिए भी यह जरूरी है कि वे वार्धक्य को ओढ़े नहीं, बल्कि जीएं, तभी नया भारत निर्मित होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।)

(उपरोक्त आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं। अखबार इससे सहमत हो यह जरूरी नहीं है।)

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