राजनीति में ऐसे नेता अक्सर मिल जाते हैं जो ‘जनसेवा’ का झंडा उठाकर सत्ता की सीढ़ियां चढ़ते हैं। हमारे राज्य के एक पूर्व कैबिनेट मंत्री भी इन्हीं में से एक हैं। हाल ही में उन्होंने अपनी पार्टी प्रमुख से आगामी विधानसभा चुनाव 2024 के लिए टिकट की मांग की है। मंत्रीजी का तर्क है कि मुंबई के व्यापारी, रहिवासी और मच्छीमार संघ के लोग उन पर चुनाव लड़ने का दबाव डाल रहे हैं। लेकिन असल सवाल यह है कि जनता का दबाव कब और कैसे जनता की समस्याओं को सुलझाने में तब्दील हुआ?
मंत्रीजी ने कुछ समय पहले अपनी नाराजगी भरे एक पत्र में पार्टी प्रमुख को साफ-साफ लिखा था कि केंद्र और राज्य दोनों में पार्टी की सत्ता होने के बावजूद उन्हें कोई बड़ा पद नहीं मिला। उनका कहना था कि पार्टी की वफादारी के बदले उन्हें विधान परिषद, राज्यसभा, राज्यपाल या किसी बोर्ड का अध्यक्ष बनाया जा सकता था, लेकिन उन्हें सत्ता में भागीदारी नहीं दी गई। अब जब सत्ता का सुख हाथ नहीं आया, तो चुनावी मैदान में कूदने की तैयारी हो रही है।
पिछले चुनाव में मंत्रीजी के साथ अन्याय हुआ, ऐसा उनका दावा है। लेकिन असली अन्याय तो जनता के साथ हो रहा है, जो पिछले चार दशकों से उनके नेतृत्व में विकास की बाट जोह रही है। अगर सचमुच मंत्रीजी को जनता की फिक्र होती, तो सत्ता में रहते हुए क्षेत्र की समस्याओं का समाधान हो चुका होता। लेकिन अब चुनावी टिकट की मांग से साफ हो जाता है कि सेवा के नाम पर असल में सत्ता की भूख ही थी।
मंत्रीजी का दावा है कि उन्होंने भाड़ूतों को मकान मालिकों से मालिकाना हक दिलाने की लड़ाई लड़ी है, लेकिन असल में यह लड़ाई शायद उनके खुद के राजनीतिक भविष्य को सुरक्षित करने की थी। सत्ता की प्यास इतनी गहरी है कि चार दशक की राजनीति भी इसे बुझा नहीं पाई। अब भी मंत्रीजी को किसी बड़े पद की तलाश है, और जनता? जनता तो सिर्फ चुनावी मोहरे हैं, जिनका इस्तेमाल करके सत्ता की कुर्सी तक पहुंचा जा सकता है।
आखिरकार, मंत्रीजी से यही कहना है कि अगर वाकई सेवा का इरादा होता तो अब तक जनता की समस्याओं का समाधान कर चुके होते। लेकिन हकीकत यह है कि सत्ता का सुख और पद की भूख अभी भी बनी हुई है। जनता के नाम पर राजनीति करना आसान है, लेकिन असली सेवा सत्ता का आनंद उठाना है—यही इन नेताओं की प्राथमिकता है।