तिरंगे की आन पर कुर्बान हो गया मैं,
चट्टान सा मजबूत था बेजान हो गया मैं।
मैं भी अपनी बूढ़ी मां की आंखों का तारा था,
लाठी पर झुके पिता का एकमात्र सहारा था।
बेटा मेरा मुझको बहुत बहादुर कहता था,
छुट्टी पर घर कब आऊंगा इंतजार में रहता था।
बेटी से भी अपने मैं अंत समय मिल ना पाया,
जब करीब आई भी वो तो मैं हिल तक ना पाया।
घर पर दोस्त मेरे भाई भी मेरा छोटा है,
याद मुझे करके वो भी फूट-फूट कर रोता है।
जाने कितनी आशाएं थीं मुझसे मेरी पत्नी को,
टूटे सारे ख्वाब अचानक जड़वत सी हो गई है वो।
कंधों पर मेरे ही सारे अपनों की जिम्मेदारी थी,
पर इससे पहले मुझ पर वर्दी की कीमत भारी थी।
सौगंध मुझे थी भारत माता का कर्ज चुकाने की,
जिम्मेदारी थी मुझ पर अपना कर्तव्य निभाने की।
मैं तो जान लुटा बैठा हूं भारत माता की खातिर,
हुआ दोबारा जन्म अगर तो फिर हो जाऊंगा हाजिर।
कतरा भर भी रंज नहीं मुझको अपनी कुर्बानी का,
जो राष्ट्र के काम ना आए क्या करना ऐसी जवानी का।
मातृभूमि की इज्जत से बढ़कर है मेरी जान नहीं,
कफन बना है मेरा तिरंगा इससे बढ़कर सम्मान नहीं।
बृज लाल तिवारी
गोंडा, (उ.प्र.)