मुख्यपृष्ठस्तंभशिलालेख: सृष्टि का मूल तत्व है आनंद!

शिलालेख: सृष्टि का मूल तत्व है आनंद!

हृदयनारायण दीक्षित, लखनऊ

राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद ने पहली व दूसरी कक्षा की पुस्तकें जारी की हैं। ये राष्ट्रीय शिक्षा नीति २०२० के अनुसरण में तैयार की गई हैं। प्रसन्नता की बात है कि इनमें तैत्तिरीय उपनिषद में वर्णित पंचकोष का उल्लेख किया गया है। तैत्तिरीय उपनिषद में आनंद का समुचित विवेचन है। कहते हैं, ‘चेतन से आकाश पैदा हुआ। आकाश से वायु, वायु से अग्नि और अग्नि से जल का उद्भव हुआ। जल से पृथ्वी। पृथ्वी से औषधियां और वनस्पतियां प्रकट हुईं। वनस्पतियों-औषधियों से अन्न और अन्न से पुरुष पैदा हुआ। यह पुरुष अन्नमय है। (तैत्तिरीय उपनिषद २.१) यहां सृष्टि के विकासवादी सिद्धांत के संकेत हैं। आगे कहते हैं, ‘अन्न से प्रजा उत्पन्न हुई। अन्न से जीवित रहती है और अन्न में लीन होती है। अन्न सभी प्राणियों का ज्येष्ठ है। अन्नमय शरीर के भीतर प्राणमय शरीर है।’ प्राण के बारे में कहते हैं, ‘प्राण ही आयु है- प्राणोहि भूतानां आयु। फिर प्राणमय शरीर के भीतर मनोमय कोष है।’ मनोमय से यह प्राणमय शरीर पूर्ण है। वह प्राणमय शरीर में सर्वत्र व्याप्त है। इसके भीतर विज्ञानमय कोष है। फिर विज्ञान के गुण बताते हैं, ‘विज्ञान कर्म क्षेत्र का विस्तारक है। सभी देवता ज्येष्ठ ब्रह्म की तरह विज्ञान की उपासना करते हैं।’ विज्ञान ब्रह्म है। विज्ञानमय कोष के भीतर आनंदमय कोष है। प्रिय उस आनंद का सिर है। मोद दक्षिण भाग है। प्रमोद उत्तर भाग है। आनंद आत्मा है। आनंदमय कोष सुंदर उपलब्धि है। आनंद सृष्टि का मूल तत्व है। वह सृष्टि का नियंता है। शंकराचार्य ने तैत्तिरीय उपनिषद के भाष्य में लिखा है, ‘आनंद विद्या और कर्म का फल है। विद्या और कर्म भी प्रिय और आनंद के लिए ही हैं। प्रिय पदार्थ की प्राप्ति से होनेवाला आनंद मोद कहलाता है। वही हर्ष प्रकट करने पर प्रमोद कहा जाता है। फिर विज्ञानमय पुरुष का वर्णन है। यह मनोमय शरीर से भी सूक्ष्म है। विज्ञानमय जीवात्मा समस्त शरीर में व्याप्त है।’ गीता (१३.३.२२) में कहते हैं कि जीवात्मा रूप क्षेत्रज्ञ शरीर रूपी क्षेत्र में सर्वत्र व्याप्त है। इसके बाद आनंदमय पुरुष का वर्णन है। यह विज्ञानमय जीवात्मा से भिन्न है। यह उसके भीतर रहता है। इसे आनंदमय कहा गया है। आनंदमय के पहले विज्ञानमय पुरुष व्याप्त है। वह इसमें भी परिपूर्ण है। आनंदमय की तुलना पक्षी रूप में की गई है। प्रिय भाव उस पक्षी का सिर है।
समस्त प्राणी आनंद चाहते हैं। इस पक्षी का दाहिना पंख मोद है। दायां पंख प्रमोद है। आनंद ही परम सत्ता का मध्य अंग है। संपूर्ण आनंद संपूर्ण दिव्यता है। अनेक पदार्थ मधु, दूध और घी भी अपने स्वाद में आनंद देते हैं। वैदिक ऋषियों को आनंदित करने वाले सोम भी आनंददाता हैं। ऋग्वेद में एक पूरा मंडल (९) सोम को समर्पित है। सोम आनंदवर्धक पेय है। आनंददाता है। आनंद का स्रोत हैं। (९.११३.६) ऋषि स्तुति है, ‘हे सोम आप वरुण व इंद्र को आनंद देते है। आप विष्णु सहित सभी देवों को आनंदित करते हैं। देवता भी अमृतत्व पाने के लिए सोम पीते हैं।’ (९.१०६.८) वैदिक पूर्वजों को दूध प्रिय है। ऋषि सोम में गाय का दूध मिलाते हैं। (९.६.६) सोम और दूध का मिलन सभी रसों का दाता है। ऋषि कहते हैं, ‘जिस समय सोम को दूध के साथ मिलाते हैं, उस समय सभी रस आकर्षित होते हैं।’ मजेदार बात यहां यह है कि यहां आनंद के स्रोत आस्था-विश्वास में नहीं भौतिक पदार्थों में हैं। ऋषि सोम में दूध मिलाने के बाद दही मिलाते हैं। पहले सोम में दूध और फिर दही, फिर इससे मिलने वाला सभी रसों का आनंद। वे इस आनंद में नमस्कार का भाव भी मिलाते हैं। ऋषि कहते हैं, ‘मधुर सोमरस में मधुर गोदूध मिलाओ, फिर नमस्कार करो। फिर दही मिलाओ। नमस्कार सहित दूध के साथ सोमपान सभी रसों का आनंददाता है।’ नमस्कार का अपना रस है। यह नमस्कार आधुनिक पियक्कड़ों के ‘चियर्स’ जैसा है। कहते हैं, ‘सोम में जब दूध मिलाया जाता है, तब सोमपान से सभी देवगण आनंदित होते हैं। सोम देवता का उल्लेख ईरान के प्राचीन ग्रंथ ‘अवेस्ता’ में भी है। ऋग्वेद के सोम ‘अवेस्ता’ में ‘होम’ है। ऋषियों के अनुसार, सोम के दर्शन से सृजन कर्म विशिष्ट हो जाते हैं। काव्य उगते हैं। गीत प्रकट होते हैं। ऋग्वेद (९.५०.१) में कहते हैं, ‘हे सोम आपके उद्भव से हम याजक, ऋक, यजु और साम मंत्रों का गान करते हैं।’ मैकडनल जैसे कुछ विद्वान सोम को इंटोक्सिकेटिंग-नशीला पदार्थ बताते हैं। यह बात गलत है। सोम रचनाशीलता का आनंद है।’ इसे पवित्र बताते हैं, ‘पवित्र यह सोमरस सूर्य की तरह सभी लोकों में प्रकाशित होता है। (९.५४.३) सोम ज्ञानदाता है। एनसीईआरटी ने उचित ही तैत्तिरीय उपनिषद के पंचकोष का बच्चों के पाठ्यक्रम के लिए सदुपयोग किया है। यह एक अच्छी शुरुआत है। उपनिषद का ज्ञान निष्कलुष और आनंददाता है। हम सब आनंद अभीप्सु हैं। मनुष्य आनंद का भोक्ता है। लेकिन अभिलाषाएं अनंत हैं। सभी इच्छाएं पूरी नहीं होती। इससे तनाव बढ़ता है। वैदिक समाज आनंद मग्न था। कामना अभिलाषाओं के तनाव नहीं थे। तैत्तिरीय उपनिषद के ऋषि ने आनंद का प्रेमपूर्ण विश्लेषण किया है। ऋषि प्रारंभ में ही कहते हैं ‘अब हम आनंद की मीमांसा करते हैं, मनुष्य युवा हों। श्रेष्ठ आचरण से युक्त हों। अध्ययनशील हों, अंग स्वस्थ हों। धनवान हों। पृथ्वी पर अधिकार भी हों। तो यहां आनंद है।’ यहां आनंद की सारी बातें भौतिक हैं। आगे कहते हैं कि लेकिन इस तरह से सौ आनंदों से बड़ा मनुष्य गंधर्वाणां आनंद है। गंधर्व आनंद कविता संगीत कला और संस्कृति से जुड़ा होता है। सांस्कृतिक मनुष्य साधारण मनुष्य की तुलना में सौ गुना आनंद पाते हैं। आगे ‘मनुष्य गंधर्व आनंद’ की तुलना में देव गंधर्व आनंद को सौ गुना बताते हैं। गीत-संगीत और कलाएं मनुष्य को विशेष आनंद देती हैं और उसे दिव्य बनाती हैं। अब उसका आनंद देव गंधर्व है और सौ गुने का भी सौ गुना हो गया है, फिर इससे भी गहन और सौ गुना आनंद पितरों का चिरलोक आनंद है। यहां पूर्वजों और पितरों के प्रति श्रद्धा और स्मरण को आनंदपूर्ण बताया गया है, फिर पितरों के चिरलोक आनंद से आजा नज देवानंद सौ गुना ज्यादा है। यह मनुष्य चेतना की विशेष मनोदशा है। इससे सौ गुना आनंद कर्म देवानां देवानमानंदा है। यह आनंद दिव्य कर्मों को करने से प्राप्त होता है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि यहां कर्म से मिलने वाले फल में आनंद नहीं है। श्रेष्ठ कर्म करने का भी अपना आनंद है। यह पूर्ववर्ती से भी सौ गुना ज्यादा है। देवताओं का आनंद इससे सौ गुना है। लेकिन इंद्र को प्राप्त आनंद इससे भी सौ गुना ज्यादा है। फिर बृहस्पति को भी ऐसा ही आनंद प्राप्त है। तैत्तिरीय उपनिषद का यह हिस्सा आनंद सागर है। यहां प्रत्येक मंत्र के बाद जुड़ा एक ही वाक्य अंत में जुड़ा हुआ है कि अकामहत वेद वेत्ता को यह आनंद सहज ही प्राप्त है। अकामहत का अर्थ कामना शून्यता है, लेकिन इसके साथ वेद वेत्ता की शर्त है। कामना शून्यता आसान नहीं। यह तत्व ज्ञान का परिणाम होता है। उपनिषद दर्शन में ऐसे तमाम लोकमंगलकारी तत्व हैं। ऐसे सूत्रों से बच्चों का सम्यक बुद्धि विकास होगा।

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