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नमस्ते सामना : ‘एक दाना अन्न’

एक अन्न के दाने की कीमत… तुम क्या जानो ‘मानवबाबू’,
यह तो हम चींटियों से पूछो जिन्हें दूर से ही आ जाती है उसकी खुशबू।
भागकर पहुंचते हैं लोकेशन पर,
छानबीन पूरी करते हैं अन्न पाने पर।
हल्के हैं,
या भारी हैं।
अनाज कितना है,
पुराना कितना है।
लेबर कितने लगेंगे,
वक्त कितना लेंगे।
अकेले से उठेगा,
या सबका जोर लगेगा।
एक-एक दाना बीनते हैं,
तब जाकर अपने खाद्यान्न भरते हैं।
ऐसे थोड़े ही हम फालतू घूमते फिरते हैं,
मेहनती हैं…और अपने दाने खुद तलाशते हैं।
हर मौसम में यही होता है
तभी बरसात में आराम मिलता है।
अन्न कीमती है ना करें इसे खराब,
इस धरती पर..
एक-एक दाना भर सकता है किसी का पेट जनाब।
– पंकज गुप्ता मुंबई 

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