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देश की नींव में एक पत्थर पंडित जी के परिश्रम का भी है!

अनिल तिवारी

देश की राजनीति में यदि आए दिन कोई नाम सुर्खियों में रहता है तो वह है पंडित जवाहरलाल नेहरू का नाम। आज की राजनीति में सत्ता पक्ष अमूमन अपनी कमजोरियों पर पर्दा डालने के लिए देश के प्रथम प्रधानमंत्री की आड़ जरूर ले लेता है। १९४७ से वो २०२३ की तुलना करने से कभी बाज नहीं आता। ऐसे में एक सवाल उठता है कि क्या आज की तुलना १९४७ की स्थिति से की जा सकती है?
यह जगजाहिर है कि १९४७ की परिस्थितियों की तुलना में आज की समस्याएं नगण्य हैं। सत्ता पक्ष बताए कि क्या आज वैसी ही परिस्थितियां हैं जैसी देश के सामने आजादी के वक्त थीं? क्या आज देश के सामने राजा-रजवाड़ों का प्रश्न है, दुश्मन देशों से युद्ध का खतरा है, देश में गरीबी-अशिक्षा-कृषि और कुपोषण की उतनी ही समस्या है? क्या देश में अब राजनैतिक अनुभव की कमी है, देश की वैश्विक स्वीकार्यता नहीं है? वैसी तमाम बड़ी-बड़ी समस्याएं क्या आज हैं, जैसी १९४७ के समय हमारे सामने थीं। आजादी के उस कालखंड में उन समस्याओं को ‘नैतिकता’ से निपटाने में संभव है कभी कोई कमी रही होगी, परंतु उसका अर्थ यह नहीं है कि वो नीयत की खोट थी। जो काम करता है,फैसले लेता है, चूक उसी से होती है। केवल मार्केटिंग और महिमा मंडन करनेवालों से नहीं। आज आजादी के अमृतकाल में हमें पंडित जी के उल्लेखनीय कार्यों के लिए उन्हें याद करना चाहिए। जिन परिस्थितियों में उन्होंने देश का नेतृत्व किया, उन पर गौर करना चाहिए, फिर अपने प्रेम या कटुता को प्रदर्शित करना चाहिए। क्यों नेहरू जी आम जनमानस से अच्छा-खासा जुड़ाव रखते थे, क्या वैसा जुड़ाव आज के युग में कोई नेता रखता है? इस पर गंभीरता से विचार के बाद ही किसी की प्रतिमा बनाने या उसे मलिन करने का काम करना चाहिए।
निश्चित तौर पर इस देश को सामर्थ्यवान बनाने और विश्व में एक सहिष्णु पहचान दिलाने में पंडितजी का अमूल्य योगदान था। उस दौर में जब देश में सूई तक नहीं बनती थी, उसे अंतरिक्ष तक उड़ान देने में उनकी नीतियों का भी उतना ही योगदान है, जितना बाद की सरकारों का रहा होगा। इसलिए जहां तक उनकी नीयत और नीतियों की बात है तो उस पर सवाल उठाना बचकानी हरकत ही कहा जाना चाहिए, जो आज की अपरिपक्व राजनीति में सामान्य सा हो गया है। नैतिकता त्याग चुकी आज की राजनीति में हम संयम को नहीं, संघर्ष को सर्वोपरि मान बैठे हैं, जो देश की संप्रभुता के लिए उचित नहीं है।
दुनिया में हिंदुस्थान को उसकी संस्कृति, सभ्यता, संप्रभुता और संस्कारों के लिए ही पहचाना जाता है, जिसका जतन करने और उसे आगे बढ़ाने में पंडित जी का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है। जहां तक बात उनके व्यक्तित्व की है, तो उन्होंने सर्वधर्म, सर्व समावेशकता की नीति को आगे बढ़ाया, जो उस वक्त की मांग भी थी और स्वतंत्रता संग्राम का मुख्य एजेंडा भी। कुछ पैâसले उनके व्यक्तिगत हो सकते हैं, पर अधिकांश कांग्रेस और देश की विचारधारा के अनुकूल थे। हो सकता है आज किसी संदर्भ में वो उतने सार्थक न हों, जितने की अपेक्षा थी, परंतु भविष्य किसी ने नहीं देखा होता। नि:संदेह पंडित जी ने भी नहीं देखा होगा। इसलिए उन्होंने वही किया जो उन्हें व उनकी सरकार को उन परिस्थितियों में देश के लिए अनुकूल लगा। मैदान के बाहर बैठकर बल्लेबाज या गेंदबाज की कमियां ढूंढ़ने से बेहतर, उन परिस्थितियों पर गौर करना चाहिए, जिसमें वो खेल रहा है। तभी आप सच्चे समीक्षक कहला सकते हैं।
आज ‘सेंगोल’ (राजदंड) की राजनीति चरम पर है। उसे संसद की बजाय संग्रहालय में रखने पर सवाल उठ रहे हैं और उसके लिए पंडित जी को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। मान भी लें कि यह तत्कालीन सरकार की एक चूक रही होगी, तब भी क्या सनातन सभ्यता के प्रतीक उस राजदंड के संसद में न होते हुए भी यह देश उनके कालखंड में राजधर्म का पालन नहीं कर रहा था? आप सेंगोल को देश की नई संसद में ससम्मान स्थान दे रहे हैं, आपका स्वागत है, परंतु इसी के साथ उस सेंगोल की स्वर्णिम प्रतिष्ठा को संजोए रखने का भरोसा भी दिलाएं। भरोसा दिलाएं कि नई संसद में इसे स्थापित करनेवाले अब द्वेष की राजनीति नहीं करेंगे, वे सही मायने में ‘सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास’ के मंत्र को आत्मसात करेंगे। वे विपक्ष को दुश्मन नहीं, बल्कि स्वस्थ लोकतंत्र का समीक्षक मानेंगे। बुराइयां केवल विपक्ष में ढूंढ़ने की बजाय खुद में भी ढूंढ़ेंगे और उन्हें सुधारेंगे भी। यदि आप ऐसा करने का संकल्प लेते हैं, तभी आप सेंगोल की प्रतिष्ठा पर बात कर सकते हैं। अन्यथा उसे प्रतीकों की राजनीति का हिस्सा न बनाएं तो बेहतर। ‘मीठा-मीठा गप-गप, कड़वा-कड़वा थू-थू’ की नीति पर इस देश की राजनीति नहीं चल सकती। जो लोग पंडित जी पर कुछ मुद्दों की आड़ में सवाल उठाते हैं, तो उन्हें ऐसा करने से पहले उन मुद्दों पर भी गौर कर लेना चाहिए, जिनकी वजह से आज देश यहां तक पहुंचा है। देश की नींव में एक पत्थर पंडित जी के परिश्रम का भी लगा है, इसे भूला नहीं जा सकता!

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