मुख्यपृष्ठराजनीतिउत्तर की बात : यूपी में दलित वोटों के लिए छिड़ी जंग

उत्तर की बात : यूपी में दलित वोटों के लिए छिड़ी जंग

राजेश माहेश्वरी लखनऊ

उत्तर प्रदेश में सभी राजनीतिक दल दलित वोटरों को अपने पाले में लाने की जुगत में लगे हैं। कथित तौर पर राज्य की आबादी में दलित वोटरों की हिस्सेदारी २१ फीसदी की है। दलित वोटरों का बहुजन समाज पार्टी का पक्का वोट बैंक माना जाता है। वो अलग बात है कि पिछले कुछ सालों से दलित वोटर बसपा से छिटकता और दूर होता दिख रहा है। बसपा के वोट बैंक में मोटे तौर पर भारतीय जनता पार्टी ने सेंधमारी की है और उसे इस सेंधमारी का सियासी नफा भी हुआ है। दलित वोटर किसी भी दल की किस्मत बनाने और बिगाड़ने की कूवत रखते हैं।
दलित वोटरों का अपने पाले में लाने की कवायद के ही चलते बीती ९ अक्टूबर को बसपा संस्थापक कांशीराम की पुण्यतिथि समाजवादी पार्टी, भाजपा और कांग्रेस के लिए दलितों तक पहुंचने के लिए अभियान शुरू करने का एक और अवसर बन गई, जिसके बाद बसपा प्रमुख मायावती ने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों पर कटाक्ष किया और उन्हें कांशीराम के ‘नए शुभचिंतक’ कहा।
प्रदेश की सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी भी दलितों को प्रभावित करने का कोई अवसर चूकती नहीं है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष भूपेंद्र सिंह चौधरी ने भी बसपा संस्थापक को पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि दी। गौरतलब है कि बीती २६ सितंबर को बीजेपी ने दलित बहुल गांवों में दलितों तक पहुंचने के लिए एक सप्ताह का ‘दलित संपर्क और संवाद अभियान’ शुरू किया था। पिछले कई चुनावों में दलितों के एक वर्ग ने बीजेपी का खुला साथ दिया है। दलित वोटों के कारण ही प्रदेश की सत्ता में बीजेपी लगातार मजबूत हुई है। यूपी कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय राय ने बसपा संस्थापक को पुष्पांजलि अर्पित की और लखनऊ में दलितों को साधने के लिए `दलित गौरव संवाद’ शुरू किया, जो राज्य के ८० लोकसभा क्षेत्रों में ४,००० रात्रि चौपाल आयोजित करने का एक महत्वाकांक्षी अभियान है। सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने पुण्यतिथि के अवसर पर लखनऊ में पार्टी मुख्यालय में कांशीराम की तस्वीर पर माला चढ़ाने के बाद कहा कि नेता ने ‘दलितों में आत्मविश्वास और राजनीतिक चेतना जगाने का परिवर्तनकारी कदम’ उठाया है। दलित समुदाय तक पहुंचने के प्रयासों के तहत इस साल जून में गठित पार्टी की शाखा ‘समाजवादी आंबेडकर वाहिनी’ भी एक आउटरीच अभियान का नेतृत्व कर रही है।
पश्चिम उत्तर प्रदेश में चंद्रशेखर आजाद द्वारा स्थापित आजाद समाज पार्टी जिसने पूरे यूपी में ‘संविधान बचाओ यात्रा’ शुरू की है, ने २०२४ के लोकसभा चुनावों से पहले राज्यभर में आयोजित कई कार्यक्रमों के हिस्से के रूप में कांशीराम की पुण्यतिथि के दिन बिजनौर में एक रैली आयोजित की। राजनीतिक दलों द्वारा ये अभियान, जिसे कांशीराम की राजनीतिक विरासत को हथियाने के प्रयास के रूप में देखा जा रहा है, ऐसे समय में आया है, जब बसपा अपने समर्थन में गिरावट देख रही है। असल में राजनीतिक दलों के ये अभियान, जिन्हें कांशीराम की राजनीतिक विरासत को हथियाने के प्रयासों के रूप में देखा जा रहा है, ऐसे समय में आए हैं, जब बसपा अपने समर्थन में गिरावट देख रही है। २०१७ के यूपी चुनाव में २२ प्रतिशत वोट-शेयर और १९ सीटें हासिल करने के बाद, पार्टी विधानसभा में एक सीट पर सिमट गई और २०२२ के राज्य चुनाव में इसका वोट-शेयर लगभग १३ प्रतिशत कम हो गया। बसपा के कमजोर होने की कोई एक खास वजह नहीं है। लेकिन ये जमीनी सच्चाई है कि दलितों में खासकर युवा दलितों में बसपा और मायावती को लेकर ज्यादा उत्साह दिखाई नहीं देता। मायावती ने अपने भतीजे को आगे बढ़ाते हुए मैदान में उतारा तो है, लेकिन उसका भी असर फिलहाल होता दिख नहीं रहा है। बीजेपी और समाजवादी पार्टी को २०२२ के विधानसभा चुनाव में जाटवों के भी वोट मिले। खास बात यह है कि बसपा प्रमुख भी जाटव समाज से हैं। समाजवादी पार्टी ने आंबेडकर वाहिनी नाम से एक संगठन बनाया है और वह पहले से ही पश्चिम यूपी में चंद्रशेखर की आजाद समाज पार्टी के साथ गठबंधन में है। सपा २०२२ के यूपी चुनाव से काफी पहले से दलित समुदाय को लुभाने में लगी है और ‘संविधान बचाओ जन चैपाल’ के बैनर तहत राज्यभर में बूथ स्तर की बैठकें शुरू करने की तैयारी में है। सपा के अलावा कांग्रेस, भाजपा, आजाद समजा पार्टी दलित वोटरों में पैठ बनाने के लिए दिन रात एक कर रहे हैं। जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव का वक्त करीब आएगा ये जंग और तेज होती जाएगी।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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