राजेश माहेश्वरी लखनऊ
लोकसभा चुनाव को लेकर देश के तमाम छोटे-बड़े दलों ने तैयारियां शुरू कर दी हैं। चुनाव की तैयारियों के साथ-साथ किलेबंदी, मोर्चेबंदी और गुटबाजी भी शुरू हो गई है। वहीं दल-बदल की खबरें भी आने लगी हैं। भाजपानीत एनडीए के समक्ष विपक्ष ने इंडियन नेशनल डेवलपमेंट इंक्लूसिव अलायंस यानी इंडिया नामक गंठबंधन बनाया है। पटना, बंगलुरु के बाद विपक्षी दलों की तीसरी बड़ी बैठक अब मुंबई में होने जा रही है। ये बैठक १५ अगस्त के बाद या फिर सितंबर के पहले हफ्ते में हो सकती है। बैठक की तारीख फाइनल नहीं हुई है, लेकिन तैयारियां शुरू कर दी गई हैं। विपक्षी गठबंधन में शामिल सभी दलों के नेताओं को आमंत्रित किया जा रहा है और उनसे समय मांगा जा रहा है। विपक्ष का कहना है कि इस बैठक में विपक्ष के करीब १०० बड़े नेता आएंगे।
भाजपानीत एनडीए को टक्कर देने की विपक्ष की इस सारी कवायद के बीच राजनीति के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण बहुजन समाज पार्टी ने एनडीए और इंडिया दोनों से बराबर की दूरी बनाई हुई है। बसपा का देशभर में भले ही बड़ा वोट बैंक या आधार न हो लेकिन देश के ८० सांसद देनेवाले उत्तर प्रदेश में उसका ठीक-ठाक जनाधार है। ऐसे में अगर बसपा विपक्ष के साथ होती तो सर्वाधिक सीटोंवाले राज्य में विपक्षी खेमा बीजेपी और उसके सहयोगियों को कड़ी टक्कर देता।
आंकड़ों के लिहाज से बात करें तो २००७ के विधानसभा चुनाव में बीएसपी ने २०६ सीटें जीतकर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी। लेकिन पांच साल के कार्यकाल में उनकी सरकार के खिलाफ नाराजगी का माहौल बना और २०१२ में पार्टी को ८० सीटें मिल पार्इं। २०१२ में समाजवादी पार्टी ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई, जिसके मुखिया अखिलेश यादव थे।
२०१७ के विधानसभा चुनाव में महज १९ सीटें मिली। २०२२ के चुनाव में तो बीएसपी महज एक सीट पर सिमटकर रह गई, वहीं २०१४ के लोकसभा चुनाव में बीएसपी को केवल एक सीट मिली थी। हालांकि, २०१९ लोकसभा चुनाव में एसपी के साथ गठबंधन के बाद बीएसपी को राज्य में १० सीटें मिली थीं। पर इसके बाद से बीएसपी को झटके पर झटके ही लगे हैं। ऐसे में अहम सवाल यह है कि राजनीतिक तौर पर लगातार कमजोर होने के बावजूद मायावती `एकला चलो रे’ की राजनीति क्यों कर रही हैं?
बसपा प्रमुख मायावती ने विपक्षी गठबंधन की बंगलुरु में हुई बैठक के ठीक अगले दिन प्रेस कॉन्फ्रेंस कर आरोप लगाया कि कांग्रेस ने जातिवादी दलों के साथ गठबंधन किया है। मायावती ने कहा था कि हम किसी गठबंधन में शामिल नहीं होंगे। ऐसा नहीं है कि बसपा कभी गठबंधन का हिस्सा न बनी हो। मायावती ३ बार देश की दो बड़ी राष्ट्रीय पार्टी के समर्थन से सरकार बना चुकी हैं। मायावती ने दो बार बीजेपी के समर्थन से सरकार बनाया जबकि एक बार उन्हें कांग्रेस का भी साथ मिला था।
मायावती ने एनडीए के साथ दूरी बनाए रखी तो वहीं विपक्षी एकजुटता की पूरी कवायद से भी। लेकिन अब मायावती के रुख में बदलाव आया है और उन्होंने विधानसभा चुनाव बाद गठबंधन के संकेत दिए हैं तो इसके भी अपने मायने हैं। जिन चार राज्यों में इस साल के अंत तक विधानसभा चुनाव होने हैं, उनमें से तीन में बीजेपी और कांग्रेस मुख्य प्रतिद्वंद्वी हैं। राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में बीजेपी और कांग्रेस के बीच सीधे मुकाबले का इतिहास रहा है।
विधानसभा चुनाव के बाद इन राज्यों में सरकार बीजेपी या कांग्रेस, इन्हीं दोनों में से किसी दल की बनेगी। ऐसे में अगर बसपा किसी भी पार्टी के साथ गठबंधन करती है तो निश्चित रूप से वह या तो एनडीए के पाले में खड़ी होगी या फिर विपक्षी गठबंधन इंडिया के। बसपा जब किसी एक खेमे में खड़ी हो जाएगी फिर लोकसभा में उसके लिए न्यूट्रल स्टैंड रखना काफी मुश्किल होगा। बसपा के लिए उस राज्य या दूसरे राज्यों में उसी पार्टी को घेरना, उस पर तीखे वार करना आसान नहीं होगा, जिसके साथ वह सरकार चला रही होंगी। असल में मायावती गठबंधन को लेकर फैसले से पहले लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल माने जा रहे इन चुनावों में हवा का रुख भांप लेना चाहती हैं।
राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, ८० सीटों वाले यूपी में करीब २१ फीसदी दलित और २० फीसदी अल्पसंख्यक हैं। ऐसे में अगर दलित और अल्पसंख्यक एकजुट होकर किसी एक पार्टी के पक्ष में चले जाएं तो उसके जीतने की संभावनाएं बढ़ जाएंगी। मायावती की कोशिश यही समीकरण तैयार करने की है। ऐसे में देखना होगा कि बसपा किसके साथ जाएगी।
(लेखक उत्तर प्रदेश मान्यता प्राप्त पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक हैं।)