रोहित माहेश्वरी
लखनऊ
आमतौर पर बहुजन समाज पार्टी उपचुनाव नहीं लड़ती हैं, लेकिन लोकसभा में मिली करारी हार के बाद बसपा सुप्रीमो ने उपचुनाव लड़ने का फैसला किया। यूपी की सभी नौ में से छह सीटों पर पार्टी की जमानत जब्त हुई। एक के बाद एक चुनाव में मिल रही करारी हार और खिसकते दलित जनाधार ने बसपा की सियासी टेंशन बढ़ा दी है। ऐसे में मायावती जल्द ही कुछ अहम कदम उठा सकती हैं, जिसमें संगठन में बड़े फेरबदल और गठबंधन की राह पर लौटने का फैसला हो सकता है। अब सवाल उठने लगा है कि क्या इन नतीजों के बाद मायावती एक बार फिर गठबंधन की ओर जा सकती हैं? यूपी उपचुनाव की ९ में ६ सीट बीजेपी, एक सीट आरएलडी और दो सीटें सपा ने जीती हैं। सपा को दो सीटों का नुकसान तो बीजेपी को तीन सीट का फायदा मिला है। बसपा एक भी सीट जीतना तो दूर की बात है, २०२२ के बराबर वोट भी नहीं पा सकी।
मुस्लिम बहुल मीरापुर सीट पर उनके उम्मीदवार शाह नजर को सिर्फ ३,१८१ वोट मिले, जबकि उनके प्रतिद्वंद्वी की तौर पर उभर रही चंद्रशेखर आजाद की आजाद समाज पार्टी २२,४०० वोट के साथ दूसरे और असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एमआईएम करीब १९ हजार वोट के साथ तीसरे स्थान पर रही।
ऐसे ही कुंदरकी सीट पर मायावती के रफातुल्ला को सिर्फ १,०९९ वोट मिले। वहां भी सपा, आजाद समाज पार्टी और एमआईएम दूसरे, तीसरे और चौथे स्थान पर रहे। सीसामऊ में बसपा तीसरे स्थान पर रही, लेकिन उसके उम्मीदवार वीरेंद्र कुमार को सिर्फ १,४१० वोट मिले। करहल में भी बसपा का वोट १० हजार नहीं पहुंच सका।
यही नहीं गाजियाबाद में भी बसपा दस हजार वोट पर ही सिमट गई है। खैर, कटेहरी सीट बसपा की जगह सपा ने ले ली है। हालांकि, बाकी चार सीटों पर उसे १० से ४० हजार के करीब वोट मिले लेकिन वे हर जगह तीसरे स्थान पर ही रहीं। उपचुनाव के नतीजों से लग रहा है कि उनके लिए मुस्लिम बहुल इलाकों में अब जगह नहीं बची है। वहां `आजाद समाज पार्टी’ और `एमआईएम’ की तरफ लोगों का रुझान ज्यादा है।
उत्तर प्रदेश की राजनीति में बसपा के प्रतिद्वंद्वी बनकर उभरे चंद्रशेखर आजाद की राजनीति अभी भी मुस्लिम वोटों पर टिकी है, लेकिन दलित वोटों को भी जोड़ने की दिशा में लगे हैं। ऐसे में चंद्रशेखर की राजनीति को मायावती बेअसर करना चाहती हैं तो आकाश आनंद को यूपी की सियासत में सक्रिय करना होगा। आकाश आनंद ही चंद्रशेखर की तरफ जा रहे दलित युवाओं को बसपा की तरफ मोड़ सकते हैं। २०२२ के विधानसभा चुनाव में पार्टी को सिर्फ बलिया की रसड़ा विधानसभा सीट पर जीत मिली थी। २०२४ के लोकसभा चुनाव में एक भी सीट नहीं जीत सकी और उपचुनाव में बसपा का खाता खुलना दूर की बात है, उसका अपना सियासी जनाधार भी खिसक गया है। दरअसल, बसपा को बीते कई चुनावों में लगातार मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। पार्टी संगठन कमजोर पड़ चुका है, जिसकी वजह से उसके प्रत्याशी चुनाव में जीत नहीं पा रहे हैं। संगठन को मजबूत करने के लिए बसपा सुप्रीमो की तमाम कवायदें असर नहीं दिखा रही हैं। पार्टी के अधिकतर बड़े नेता सक्रिय नहीं हैं, अथवा उनकी भूमिका केवल प्रत्याशियों का चयन करने तक सीमित रह गई है। पार्टी द्वारा बीते दिनों सदस्यता शुल्क की राशि कम करने का भी कोई खास फायदा नहीं मिला है। जानकारों की मानें तो इसकी वजह से पार्टी को किसी दूसरे दल से गठबंधन नहीं करने का अपना पैâसला बदलना पड़ सकता है। इससे भले ही उसे सत्ता हासिल न हो, लेकिन पार्टी का अस्तित्व बचाने के लिए सांसद और विधायक मिल सकते हैं।
प्रदेश और बसपा की सियासत को करीब से जानने वालों के अनुसार, मौजूदा राजनीति में बिना गठबंधन के बसपा का सियासी उभार आसान नहीं है। बीजेपी और सपा जैसी पार्टियां गठबंधन करके राजनीति कर रही हैं तो बसपा को परहेज नहीं होना चाहिए। मायावती को अपना जनाधार और बसपा के सियासी अस्तित्व को बचाए रखना है तो गठबंधन की राजनीति पर लौटना पड़ेगा, वरना बचा खुचा वोट भी किसी दूसरे दल में ट्रांसफर हो जाएगा। माना जा रहा है कि मायावती अब `एकला चलो’ की राह के बजाय गठबंधन की राह पर लौटने का फैसला कर सकती हैं। उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव २०२७ में है, लेकिन उससे पहले दिल्ली व बिहार में चुनाव होने हैं। सियासी जानकारों के अनुसार, आने वाले दिनों में मायावती संगठन से लेकर पार्टी की रीति-नीति में फेरबदल कर सकती हैं। आखिरकार, अब बसपा के सामने अस्तित्व बचाने का संकट मुंह बाए खड़ा है।
(लेखक स्तंभकार, सामाजिक, राजनीतिक मामलों के जानकार एवं स्वतंत्र पत्रकार हैं)