भारत अपनी ‘वसुधैव कुटुंबकम’ भावना की वजह से जाना जाता है। इंसान ही नहीं, बल्कि पर्यावरण के प्रति भी हमारा समाज संवेदनशील रहा है। लेकिन बीते कुछ सालों में बदलते परिवेश के साथ यह अक्सर सुनाई देता है कि भारतीय समाज से पर्यावरण धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता। वैसे समाज में कई ऐसे व्यक्ति भी हैं, जो जी-जान लगाकर पर्यावरण को बचाने में जुटे रहते हैं। इन्हीं में से एक शख्सियत हैं सीमा अग्रवाल, जो शिक्षा और पर्यावरण के प्रति लोगों को जागरूक करने में सक्रिय भूमिका निभा रही हैं। प्रयागराज की इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से अपनी उच्च शिक्षा प्राप्त करने के अलावा सीमा कला में भी काफी माहिर हैं। उन्होंने शास्त्रीय संगीत के अलावा फैशन डिजाइिंनग में भी शिक्षा प्राप्त की हैं। पर्यावरण और शिक्षा के क्षेत्र में उनके द्वारा उठाए जा रहे कदमों को लेकर `दोपहर का सामना’ के संवाददाता अभिषेक कुमार पाठक ने उनसे बातचीत की। प्रस्तुत हैं उस बातचीत के प्रमुख अंश…
शिक्षा और पर्यावरण एक सिक्के के दो पहलू हैं। पर्यावरण का संरक्षण बिना उचित शिक्षा के नहीं किया जा सकता है। भारत के अलावा कई देश चांद की अंधकार भरी सतह पर पहुंच गए हैं, लेकिन खुद की उजाले से भरी धरती के बारे में लोगों को उचित जानकारी और ज्ञान भी नहीं है। कई देश और राज्य प्राकृतिक आपदाओं के शिकार हो रहे हैं, फिर भी हम अभी भी बुनियादी पर्यावरणीय नियमों का पालन नहीं करते हैं।’
पर्यावरण के प्रति लगाव की प्रेरणा कैसे मिली?
मेरा पूरा बचपन प्रयागराज में बीता। प्रयागराज की संस्कृति जहन में बसी हुई है। मां गंग के खूबसूरत बहाव के साथ हमने वहां की खुली हवा और मिट्टी में खेलकर बचपन गुजारा है। इसके अलावा प्रयागराज का कला से पुराना संबंध है। इसके जरिए हमने बहुत कुछ सीखा है। मुंबई में आने के बाद उन चीजों को मैंने बहुत मिस किया। वो मुंबई में नहीं देखने को मिला, यहां मिट्टी भी ढूंढ़नी पड़ती है। लोगों में पेड़-पौधों से कोई लगाव नहीं है। इन बातों ने मुझे पर्यावरण के प्रति प्रेरित किया है।
विकास के साथ कैसे रखा जाए पर्यावरण का खयाल?
एक समय था, जब पहली बारिश से हम मिट्ठी की खुशबू को महसूस करते थे। लेकिन बीते कई दशक से शहरों में कंक्रीटाइजेएशन इस कदर बढ़ता जा रहा है कि पहली बारिश के बाद आने वाली पहली खुशबू गुम हो गई है। इसका असर पर्यवारण पर भी पड़ रहा है। धरती आग उगल रही है। गर्मी इस कदर बढ़ गई है कि लोग सहन नहीं कर पा रहे हैं। इस सबकी वजह है अनुचित रूप से विकास कार्य। विकास कार्य जरूरी है, वह हम पर्यवारण के साथ खिलवाड़ करके नहीं, बल्कि प्लानिंग करके कर सकते है। जैसे सभी बिल्डिंगों में रैन वॉटर हार्वेस्टिंग और कई नई तकनीकों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए।
बदलाव में किन दिक्कतों का सामना करना पड़ा?
आदत पड़ने के बाद उसे बदलना काफी मुश्किल भरा होता है। लेकिन एक अच्छे इरादे के साथ की हुई कोशिश कभी बेकार नहीं जाती है। मैंने जब लोगों को सचेतकर बदलाव करने का खयाल लेकर कार्य करना शुरू किया, तब काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा। सबसे बड़ा मुद्दा सफाई का था। गीला कचरा-सूखा कचरा अलग करने के लिए लोगों को मैंने जागरूक करने का प्रयास किया और सफल भी हुआ है। लेकिन जिस गाड़ी में कचरा भरा जाता है, वहां जाकर एक ही होना है। ऐसे में पूरी मेहनत पर पानी फिर जाता है। प्रशासन और जनता दोनों का एक साथ सजग होना जरूरी है, वरना ऐसे कोई खास बदलाव नहीं लाया जा सकता। इसके लिए सबसे बेहतर विकल्प है कि वेस्ट मैनेजमेंट के लिए काम करने वालों का आगे आना या फिर ऐसे एनजीओ को बढ़ावा देना, जो वेस्ट मैनेजमेंट के लिए काम करें या मदद करें।
शिक्षा के क्षेत्र में आपने क्या महत्वपूर्ण कदम उठाया?
मेरा मानना है कि शिक्षा सिर्फ किताब, कलम या स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई में ही नहीं मिलती है। लोगों के जीवनयापन या अच्छी जिंदगी के लिए जो सिखाया जाए, वह भी एक शिक्षा होती है। इसके लिए मैंने और मेरी टीम ने बहुत मेहनत की है। महाराष्ट्र के कई गांवों में हमने सैनिटाइजेशन, शौचालय, डस्टबिन इस्तेमाल करने के संबंध में उचित शिक्षा दी है, साथ ही ये चीजें लोगों को मुहैया कराई है। इसके अलावा हम ऐसे कई छात्रों के शिक्षा का खर्च वहन कर रहे हैं, जो एग्रीकल्चर क्षेत्र में पढ़ाई कर रहे हैं। मेरा मानना है कि सब इंजीनियर और डॉक्टर बन जाएंगे तो कृषि प्रधान देश में कृषि का क्या होगा?
स्कूलों में जागरूकता के लिए आपने क्या किया?
मेरी टीम ने महाराष्ट्र के कई जिला पंचायत स्कूलों में शौचालय और रोजाना इस्तेमाल होने वाली चीजों का निर्माण और उनके रखरखाव का खयाल रखा है। हमने हाल ही में सफाले के जिला पंचायत स्कूल में बच्चियों के लिए शौचालय का निर्माण करवाकर उनके ही हाथों से उद्घाटन करवाया, ताकि उन्हें यह भान रहे कि यह उनके लिए बना है।