अनिल मिश्र
‘देश को आजाद हुए ७५ वर्ष हो गए और हमने काफी विकास भी किया लेकिन आज भी हम अंधविश्वास को गले लगाए हुए हैं। एक ओर जहां हम नारी की पूजा करते हैं, वहीं दूसरी ओर उसे डायन करार कर हम उसके साथ अमानवीय कृत्य करते हैं।’
‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ अर्थात जहां स्त्रियों की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं। लेकिन एक ओर हम जहां महिलाओं के सशक्तीकरण की बात करते हैं, ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ की बात करते हैं, वहीं दूसरी ओर अंधविश्वास और डायन प्रथा में महिलाओं को जक़ड़कर समाज उनके साथ तरह-तरह की घिनौनी हरकत कर अपने साक्षर होने का दंभ भरता है। ग्रामीण इलाकों में कथित रूप से डायनों की पहचान करनेवाले अशिक्षित ओझाओं की भरमार है। इन क्षेत्रों में किसी के बीमार होने अथवा मृत्यु होने पर ये ओझा अपनी रोजी-रोटी चलाने के लिए गांव की ही किसी महिला को डायन घोषित कर देते हैं। इसके बाद गांववाले महिला व उसके परिवार का सामाजिक बहिष्कार कर देते हैं। साथ ही तथाकथित डायन महिला को उसकी करतूत के हिसाब से सजा भी देते हैं। कई मामलों में तो यह सजा हत्या तक में बदल जाती है। आज भी सुदूरवर्ती ग्रामीण इलाकों में यह प्रथा बदस्तूर जारी है। अब तो यह प्रथा शहरी क्षेत्रों में भी पांव पसारने लगी है। यह अलग बात है कि प्रशासन की नजरों तक पहुंचने से पहले ही मामलों का निपटारा कर दिया जाता है। तमाम मोर्चे पर प्रगति के बावजूद देश के विभिन्न हिस्सों में अब भी अंधविश्वास जस-का-तस कायम है। इसकी सबसे बड़ी मिसाल डायन प्रथा है, जिसमें पुरुषों के साथ-साथ महिलाएं शामिल होकर महिलाओं के साथ अमानवीय कृत्य करती हैं। डायन के नाम पर जान से मारने, पीटने, सिर मुंडाने से लेकर मल-मूत्र खिलाने के साथ ही समाज से बहिष्कृत करते हैं। हालांकि, देश में डायन प्रथा की उत्पत्ति राजस्थान से बताई जाती है। लेकिन सबसे ज्यादा झारखंड और बिहार में इस प्रथा से महिलाओं को भारी क्षति उठानी पड़ रही है, जबकि बिहार सरकार ने १९९९ में ही एक एक्ट बनाकर समाज में जारी इस कुप्रथा के खिलाफ कानून बनाया है, जिसके तहत छह माह के कारावास और दो हजार रुपए जुर्माने का प्रावधान है। झारखंड सरकार ने २०१६ से इस अंधविश्वास के खिलाफ छठी, सातवीं और आठवीं कक्षा की किताबों में शामिल कर इसे जड़ से समाप्त करने का अभियान चलाया है। तब भी २०२० से २०२२ के बीच अधिकृत तौर पर २६ महिलाओं को डायन बताकर मार दिया गया, वहीं डायन बिसाही के ८३७ मामले दर्ज किए गए। जबकि वहीं अविभाजित बिहार में १९९९ वाले एक्ट को भी झारखंड सरकार ने अंगीकृत कर लिया है। इसके बावजूद इस प्रथा पर पूर्ण रूप से लगाम नहीं लगी है। इस प्रथा में विधवा या नि:संतान महिलाओं को ज्यादा प्रताड़ित किया जाता है। खासकर, गरीब या दबे-कुचले समाज में जो रहती हैं, उन्हें निशाना बनाया जाता है। इस प्रथा में ग्रामीण क्षेत्रों से ज्यादा मामले आते हैं। वहीं नब्बे प्रतिशत मामले पुलिस प्रशासन में नहीं जा पाते, जिसके चलते पीड़ित महिला समाज में घुटनभरी जिंदगी जीने को मजबूर हो जाती है। विडंबना है कि पुरुष सत्ता पोषित समाज या कथित सामाजिक कार्यकर्ता इस तरह के मुद्दे पर बहस नहीं करते हैं और न ही राजनेता इस मुद्दे को वोट के समय उठाते हैं। यह प्रथा बिहार, झारखंड, असम, प. बंगाल और राजस्थान के सैकड़ों जिलों में प्रचलित है, जिससे महिला सशक्तीकरण, बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ के स्लोगन बेमानी सिद्ध हो रहे हैं। सती प्रथा, बाल विवाह और विधवा विवाह प्रथा जैसे एकजुट होकर डायन प्रथा को नष्ट करने की जरूरत है। इस संबंध में मानवाधिकार आयोग और महिला आयोग के हस्तक्षेप की बड़ी जरूरत है। सिर्फ कानून बनाने से इस अंधविश्वास को रोकना संभव नहीं दिखता है।