मुख्यपृष्ठस्तंभअवधी व्यंग्य : जबरा मारे रोवहुँ न देय

अवधी व्यंग्य : जबरा मारे रोवहुँ न देय

एड. राजीव मिश्र मुंबई

गाँव के अकेले अउर नाम के जमीदार फेकन के झूठ के डंका पूरे डेबरा मा है, मतलब फेकन अगर चाहे तो पानी छोड़व बरफ मा आगि लगाय देय। वइसे तो फेकन पइदा तो साठ में भये रहें पर अंग्रेजन अउर अपने जमीदारी के गदर के किस्सा अइसन लपेट-लपेट के परोसत हँय कि मानो अंग्रेज इनही के डरवाए पतरी छोड़ि के भागि गए हैं। चेहरा पे कटारी की नइया मोछ के नीचे तमाखू से करिया होइ गवा दुइ दाँत बचि रहे बाकी उनके अनुसार अंग्रेजन के साथ लड़ाई मा शहीद हुइ गए रहें। जब-तब गाँव के लड़िकन के जुटाय के मनगढ़ंत कहानी सुनावत फेकन के चेहरा लाल तो होइये जात है साथ मा दाँत न रहे के कारन बात-बात में मुँह से फेचकुर भी फेकि देत हैं।
आज अइसनय कुछ फेकम-फाक चलि रहा रहा तब तक ओहर से लपेटन गुरु आइ गए, फिर तो अइसन फेकब-लपेटब शुरू भवा कि मुगलिया सल्तनत से लइके अंग्रेजी हुकूमत तक के एक्कउ मनई जियत होते तो जहर खाई के मरि जाते या फिन फाँसी डामर लइके आपन जान देइ देतें। का हो जमीदार काव होइ रहा है? काव बताई गुरु, लड़िकन के अपने जवानी के किस्सा बताई रहे हैं कि कैइसे फिरंगी सिपाही के धोबीपछाड़ देइ के पूरी डाक लूटि लिए रहे। अरे हाँ जमीदार, याद है कैइसे पिस्तौल के आगे से सीना तानिके पूरी डाक लूटि के १३० रुपिया बनाय लिए रहे अगर वहि दिन उ सार्जेंट हटि नही गवा होत तो जमीदार तू तो ओहिके जान लेइ लेता। तब का? तब हमरेउ जवानी के खून रहा एक साथ दस मनसेधू के धूरि चटाय देत रहे। अब बुढ़ौती के दिन है कोउ बातय नही सुनत हैं। तब जमीदारी के दिन रहा अब तक तो दुइ बेर घर के अंदर से शरबत और कचालू आइ गवा होत, लगभग ताना मारत लपेटन फेकन के चित्त कइ दिहेन। तो का अब जमीदारी के दीमक लगि गवा है का? मुअल हाथी तउ नौ लाख, तुम बईठो अबहिये देखो हमरा ठाट। इतना कहिके फेकन अंदर गयें बस अंदर से चीख-पुकार के साथ खुनवा खुनन्त होइ के जमीदार निकरे अउर सरपट नारे की ओर भागि लिहें। उनके पीछे लट्ठ लइके जमीदारिन निकरी उनका रौद्र रूप देखिके फेकन अइसन फिरंगी भये कि पूछौ नही।

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