मैंने तो उसे सिर्फ देखा और सुना
वो क्या कह रही है
इससे पहले कि मैं कुछ बोल पाता
इतने पर ही कुछ यूं प्रतीत हुआ कि
वो मुझे जान गई है, अच्छी तरह समझ गई है
एक ‘दिलकश मुस्कान’ फेंक आहिस्ता-आहिस्ता
वो मेरी दृष्टि से ओझल होती चली जा रही थी
और मैं दूर तक-देर तक उसे ताकता रह गया
सोचता रह गया कि अब लौटेगी
अब पलट आएगी मेरी तरफ
मुझ पर अपनी अदा का
खूबसूरत जलवा दोहराने
मगर नहीं, मेरा अनुमान, मेरी प्रतीक्षा
सब विफल सिद्ध हुए, अब तक तो
उसका साया भी उसी के साथ हो लिया था
इसे मेरा मायूस मन समझता भी तो क्या?
अंततः मैं हाथ मलता रह गया।
इसी सोच में चिर देर तक डूबा रहा कि
इससे तो अच्छा होता कि वो
मुझसे रुबरू नहीं होती
न मेरे सामने से गुजरती, न कुछ कहती
और न ही कुछ कहकर वो मुस्कुराती
ना मेरा चित्त हर लेती न मैं विचलित होता
जानें मेरे नसीब में ये नजारा दुबारा हो न हो
शायद इस जन्म में मुलाकात हो ना हो,
क्या पता किसको खबर!
-त्रिलोचन सिंह अरोरा