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बेबाक : सारस, साहस और सिस्टम!

•  अनिल तिवारी
पिछले लंबे अर्से से उत्तर प्रदेश में केवल राज्य पक्षी सारस और राज्य सरकार के साहस पर ही सबका ध्यान केंद्रित है, तो वहीं दूसरी ओर केंद्र सरकार का पूरा का पूरा ‘सेंट्रल’ महकमा सुप्रीम कोर्ट तक सीमित हो चुका है। सारस, साहस, सीबीआई और सिस्टम की इस जंग में सामाजिक सुरक्षा और सामाजिक विकास दोनों ही बहुत पीछे छूट गए हैं। इतने पीछे कि शायद २०२४ के सियासी रथ पर सवार होकर भी वे सुर्खियों में न आ सकें। तब हो सकता है कि समाज की मूलभूत समस्याएं इस बार सत्ता की होड़ में पीछे ही रह जाएं।
इस वक्त पूरे देश का ध्यान उत्तर प्रदेश के एक सारस और कुछ माफियाओं पर केंद्रित हो चुका है। प्रदेश में कथित विकास की गाड़ी ६ वर्षों बाद भी अपने गंतव्य तक नहीं पहुंच पा रही है। कल गुजरात से चला माफिया अतीक अहमद का काफिला गाय से टकराया, उसके भाई अशरफ का बरेली से चला काफिला रास्ता भटका, पर अंतत: अपने गंतव्य तक पहुंच ही गया। परंतु २०१७ से राज्य में चला बदलाव का काफिला अब भी समस्याओं से टकराने और रास्ता भटकने से गंतव्य तक नहीं पहुंच पाया है। योगी जी को यूपी में सरकार बनाए ६ वर्षों का समय हो चुका है, लेकिन तब भी उनकी सरकार का काफिला ध्रुवीकरण के रास्ते पर भटकने से न तो बाज आ पा रहा है, न ही विद्वेषों के स्पीड ब्रेकरों से टकराए बिना रह पा रहा है। बेशक समाज की बुराइयों पर ‘बुलडोजर’ चलना चाहिए पर समाज की जरूरतों पर भी उतना ही ध्यान केंद्रित होना चाहिए। केवल विज्ञापन और प्रचार से सुशासन का भ्रम पैदा नहीं किया जा सकता। जब सरकार को राज्य पक्षी सारस की सुध आती है तो नि:संदेह उसे सामाजिक जरूरतों पर भी लक्ष्य केंद्रित करना चाहिए। जब सरकार को इन्वेस्टमेंट समिट जरूरी प्रतीत होता है तो उसे आम नागरिक की मूलभूत जरूरतों पर भी गौर करना चाहिए। एक संवेदनशील सरकार से राज्य में बेरोजगारी, महिला सुरक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक समरसता के प्रश्न वैâसे छूट जाते हैं। जब सरकार बदलने के बावजूद अपराधियों के मंसूबे नहीं बदलें; चोरी, अपहरण, गैंगरेप और महंगाई के आंकड़े लगातार बढ़ते जाएं, तो बदलाव के दावे वैâसे किए जा सकते हैं। उत्तर प्रदेश सरकार भले ही बड़े दबंगों और माफियाओं को मिटाने का संकल्प दोहरा रही हो, पर समाज को भीतर से चट करनेवाले आपराधिक दीमक से पैâलनेवाली अराजकता को क्यों वश में नहीं कर पा रही है?
आंकड़ों पर यदि गौर करें तो यूपी में एक तरफ अपराध के आंकड़े सिरदर्द बन रहे हैं तो दूसरी ओर सामाजिक वैमनस्यता की फितरत। समाज के छोटे-छोटे अपराधी चोरी, अपहरण, गैंगरेप और हत्याओं को बेखौफ अंजाम दे रहे हैं। रोजगार के लिए युवाओं को पलायन पर मजबूर होना पड़ रहा है। कोरोना जैसे कठिन काल में भी स्वास्थ्य सेवाएं अपग्रेड नहीं हो पा रहीं। सस्ते और भरोसेमंद इलाज के लिए प्रदेशवासियों को अब भी मुंबई और दिल्ली जैसे महानगरों का रुख करना पड़ रहा है। फिरौती और फर्जीवाड़े का कारोबार यूपी में अब भी फल-फूल रहा है। परंतु योगी जी के प्रशासन की प्राथमिकताओं में इनका शुमार नहीं हो पा रहा। उनके राजनैतिक राजमार्ग पर आम जनता की जरूरतों का कोई ‘रथ’ नहीं चल पा रहा। जो चल भी रहा है तो वो हाईवे से उतरकर गांव की सड़कों तक पहुंच नहीं बना पा रहा।
आखिर ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि योगी सरकार चुने हुए जनप्रतिनिधियों से ज्यादा अफसरशाही पर निर्भर है। लालफीताशाही उत्तर प्रदेश में इन दिनों हावी है या यूं कहें उन्हें हावी होने का मौका दिया गया है। जिसके बोझ तले जनता और उनके प्रतिनिधियों की आवाज दबकर रह गई है, जिसके उदाहरण आए दिन प्रदेश के मुख्यालय से जिलों-तहसीलों के कार्यालयों तक देखने को मिल जाते हैं। कुल मिलाकर यूपी इन दिनों केंद्र की हू-ब-हू कॉपी-पेस्ट नीति पर चल रहा है। गुजरात के सियासी पैटर्न पर चल रहा है। जहां तक के सारे सूत्र राज्य के मुखिया और पावर उसके सिस्टम के अधीन होता है। जहां सब कुछ ‘पक्ष’ में होता है विपक्ष में कुछ नहीं होता है। जो कल गुजरात में हो रहा था, वो आज देश और उत्तर प्रदेश में हो रहा है। सत्ताधारी पक्ष में किसी की कोई बिसात नहीं है। सरकार और संगठन के लोग चाहे जितना ढिंढोरा पीटें, ढोल नहीं फोड़ सकते हैं। उन्हें केवल बजने का, नाद करने का काम सौंपा गया है।
बहरहाल, किसे बख्शना है, किसकी राजनीति निपटानी है यह अब दिल्ली की तर्ज पर कुछ हद तक लखनऊ में भी तय होने लगा है। जब राहुल गांधी संकट में लाए जा सकते हैं, लालू प्रसाद यादव पर शिकंजा और कसा जा सकता है, केजरीवाल की कन्नी काटी जा सकती है, मित्रपक्षों को निपटाया जा सकता है तो फिर अखिलेश यादव की सियासत पर ब्रेक क्यों नहीं लगाया जा सकता? सेवा की सियासत को सत्ता की सियासत में परिवर्तित क्यों नहीं किया जा सकता। खोने के लिए राजनीति में आने की अवधारणा को पाने के लिए राजनीति करने में क्यों नहीं बदला जा सकता। अतीक अहमद हो, मुख्तार अंसारी हो या चाहे जो कोई भी माफिया-दबंग हो, उसे उसके कानूनी अंजाम तक पहुंचाना ही चाहिए, पर इसी बीच समाज की जरूरतों और उनके मुद्दों को भी आवश्यक अंजाम तक पहुंचाया जाना चाहिए। ये मुद्दे सारस, साहस और सिस्टम में पिसने के लिए नहीं छोड़े जा सकते।

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