अनिल तिवारी- निवासी संपादक
पूर्वार्ध
‘जनता मूर्ख होती है’, इस सियासी सोच को तो कर्नाटक के नतीजों ने गलत साबित कर ही दिया है। खासकर, हिंदू मतदाताओं को नासमझ समझने वालों के लिए यह गंभीर चेतावनी ही है। आप हर बार, बार-बार आस्था को चुनावी हथियार नहीं बना सकते। हनुमान जी के नाम को इस्तेमाल कर आप हर बार किसी और दल को बदनाम करने का प्रपंच भी नहीं कर सकते, न ही चुनाव जीत सकते हैं। महाराष्ट्र में आपने इसका छोटा-सा प्रयोग किया था, पर कर्नाटक के बड़े प्रयोग में आप फेल हो गए। आपने चाल, चरित्र और चेहरा बदला तो जनता ने आपको एक छोटा-सा सबक दे दिया। सबक दे दिया कि जब सनातन धर्म की बात करो तो साफ नीयत और नीति की सीख पर भी चलो, वर्ना ठोकर निश्चित है।
कर्नाटक चुनाव की हार और ‘द केरला स्टोरी’ पर तकरार निश्चित ही स्वाभाविक नहीं है। उसी तरह, जिस तरह किसी फिल्म पर बैन लगाना या उसे टैक्स फ्री करना, इस देश में नया नहीं है, परंतु उस पर कोरी राजनीति करना बेशक नया है। संपूर्ण मंत्रिमंडल के साथ बैठकर किसी प्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारा कोई फिल्म देखना नया है। ऐसा करके वे क्या जतलाने का प्रयास कर रहे होते हैं? ऐसे प्रोजेक्शन जितना धर्म विशेष का ध्रुवीकरण करते हैं, उससे कहीं अधिक विपरीत वर्ग में मोर्चेबंदी कराते हैं, उनके कट्टरवादी तत्वों को बल देते हैं। फिल्म में संदेश है तो जनता देखेगी भी और अमल भी करेगी ही। जब तक मुद्दा फिल्म में दिखाई गई सच्चाई और तथ्यों का होगा, तब तक सब इससे सहमत होंगे, पर जैसे ही मुद्दा पीड़ितों को न्याय दिलाने की बजाय राजनैतिक लाभ का हो जाएगा, मतदाता असहमत होने लगेंगे। फिर उस असहमति में सवाल भी उठेगा कि ‘कश्मीर फाइल्स’ और ‘द केरला स्टोरी’ के कितने पीड़ितों को आपने अब तक न्याय दिलाया है? जब आपकी मंशा ही उन्हें न्याय दिलाने की नहीं, तब उस पर राजनीति क्यों? कभी धर्म-जाति पर, तो कभी राजनीति की ठेकेदारी पर फिल्म बनाकर, देश के लिए खतरा कौन और धर्म का झंडाबरदार कौन, यह साबित नहीं होता। आप फिल्मों के जरिए मतदाताओं के मनो-मस्तिष्क पर प्रभाव तो डाल सकते हैं, पर उन्हें हमेशा के लिए सम्मोहन की अवस्था में नहीं रख सकते। ताजा चुनावी नतीजे यही बताते हैं। बताते हैं कि ८४ प्रतिशत हिंदुओं वाले राज्य में जब एक कथित हिंदूवादी संगठन हार जाता है तो यह उसके लिए मंथन करने का समय होता है।
इस्लामी कट्टरवाद की वजह से देश में तमाम समस्याएं खड़ी हुई हैं, पर उसका निवारण ध्रुवीकरण की राजनीति से नहीं होगा। दुनिया के किसी देश में कोई किसी कौम को मिटा नहीं सकता, न ही उसे उसकी बुराइयों के लिए त्यागा ही जा सकता है। जिस तरह कोई धर्म नहीं मिट सकता, उसी तरह गजवा-ए-हिंद वाले भी किसी धर्म को मिटा नहीं सकते। दुनिया के बड़े से बड़े तानाशाह ऐसा नहीं कर पाए, हम तो प्रजातांत्रिक प्रणाली का हिस्सा हैं। यहां तो समाज में समरसता बढ़ाने, उसमें व्याप्त बुराइयों को दूर करने और कट्टरवाद कम करने का सतत प्रयास होना चाहिए। सरकारों का काम भी यही होता है, क्योंकि सत्ता जिम्मेदारियों का दूसरा नाम है। सत्ता सामाजिक विद्वेष बढ़ाने का माध्यम नहीं हो सकती। हिंदुओं के साथ इस देश में अन्याय हुआ है, अत्याचार हुआ है, उनका दमन भी हुआ है, यह सर्वविदित है। इस पर आपत्ति दर्ज होनी ही चाहिए और जिन गलतियों को सुधारा जा सकता है, उन्हें सुधारा भी जाना चाहिए, पर समाज में द्वेष और जहर बोने की कीमत पर कदापि नहीं। अतीत में जो गलत हुआ है उसे सुधारना भी जरूरी है, पर उसके लिए एक संयमी और संवैधानिक प्रक्रिया का पालन होना भी उतना ही जरूरी है। निश्चित तौर पर इस देश में इस्लामी कट्टरवाद की समस्या आज भी है, अतीत में भी थी और संभव है भविष्य में भी रहे। इसका अर्थ यह नहीं है कि उस कट्टरवाद का जवाब नए सियासी अराजकवाद से ही दिया जाए।
दुनिया आगे की ओर बढ़ चुकी है। ‘सर्वधर्म समभाव’, श्वेत-अश्वेत का अंतर मिटाने की ओर। जाति के दल-दल से समाज को निकालने की कोशिश हो रही है और हम यहां उसे, चुनाव दर चुनाव और मजबूत कर रहे हैं। अब भी जाति, धर्म और पंथ के नाम पर चुनाव लड़ रहे हैं। क्या यह एक ‘विश्वगुरु’ होने का दावा करनेवाले देश के लिए शर्मनाक नहीं है? हम नस्लों में जब प्रेम और विश्वास पिरोएंगे, तभी तो युगपुरुष और विश्वगुरु कहला सकेंगे। ‘सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास’ जरूरी है। बेहद जरूरी। देश को संसद से ही तो यह नारा मिला था, फिर कहां गया विश्वास? आपने मुस्लिम महिलाओं के हितों के लिए कितने काम किए, तब भी क्या वे आपके साथ खड़ी हैं? उन्हें अब भी आप पर विश्वास क्यों नहीं है? क्योंकि ‘पार्टी विथ डिफरेंस’, हर मुद्दे में ध्रुवीकरण ही खोजती है। ध्रुवीकरण की इस अति से ऐसा न हो कि देश के अल्पसंख्यकों का तो आपसे विश्वास उठे ही, बल्कि देश के हिंदुओं का भी आपसे भरोसा उठता चला जाए। ऐसा हुआ तो दशकों तक आप दोबारा ‘हिंदूवादी’ कार्ड नहीं खेल पाएंगे।
साम-दाम-दंड-भेद की नीति अंग्रेजों की थी, उसे उन्हीं को मुबारक रहने दीजिए। मौकापरस्तों, दल-बदलुओं और स्वार्थियों के भरोसे सियासत मत कीजिए। दुनियाभर में हिंदुस्थान की जो सहिष्णु और सर्वसमावेशक छवि है, उसे ठेस मत पहुंचाइए। हिंदुओं पर कट्टरवादी होने के बेबुनियादी पाकिस्तानी आरोपों को आधार मत बनने दीजिए। जो विश्वास और प्रतिष्ठा शतकों के समर्पण और त्याग से हमें हासिल हुई है उसे क्षणिक राजनीतिक लाभ के लिए दांव पर मत लगाइए। आप विकास के नाम पर आए हो तो विकास की ही बात करिए। आप जब तक देश की बात करेंगे, तब तक किसी को एतराज नहीं होगा, पर जब आप द्वेष की बात करेंगे तो क्लेश होगा ही। चाहे तो गौर कर लिजिए, जब तक देश की बात हो रही थी, मतदाता भी आपके साथ खड़ा था, पर जब द्वेष की बात होने लगी, तो उसने साथ छोड़ दिया। विकास की बात हो रही थी तो वो आपके पास था, जब विश्वासघात की बात होने लगी तो वो पीछे हट गया। उसने जतला दिया कि चुनाव दिलों में आग लगाकर नहीं जीते जाते, चुनाव फिल्मों से नहीं जीते जाते, चुनाव दिलों में विश्वास पैदा करके जीते जाते हैं।
हमने ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का मंत्र जपा है, कम-से-कम हिंदुस्थान में तो उसका अश्क दिखाइए। आप निश्चित ही देश के लिए अच्छा करना चाहते होंगे, पर इसके लिए जनता की भावनाओं को तो मत भड़कने दीजिए। आप यह कार्य सभी को विश्वास में लेकर भी तो करवा सकते हैं। राजनीतिक तौर पर यदि यह संभव न हो तो सामाजिक और धार्मिक तौर पर तो इसकी पहल हो ही सकती है। किसी राजनीतिक ‘चाणक्य’ के झांसे में मत आइए। वैसे भी चाणक्य नीति सुशासन की नीति है, दु:शासन की नहीं। चाणक्य नीति राजधर्म की नीति है, राजनीति के अधर्म की नहीं। भविष्य में बहुसंख्य हिंदुओं पर अधर्म-अत्याचार न हो, इसके लिए आप उन्हें सामर्थ्यवान बनाइए, शक्तिशाली बनाइए। अपने संयम और समझ से उन्हें न्याय दिलाइए। न कि उनकी भावनाओं को भड़काकर उन्हें कट्टरपंथियों की जमात में शामिल कराइए।
केवल सत्ता आपका अंतिम लक्ष्य नहीं होना चाहिए, बल्कि रामराज, जिसमें सभी के लिए जगह हो, सभी के लिए सम्मान हो, यह आपका संकल्प होना चाहिए। जहां न किसी का किसी के प्रति द्वेष हो, न कोई भय हो, न मनमुटाव हो। ऐसा ही देश बनाने के लिए जनता-जनार्दन ने आपको सत्ता दी है। सर्व समावेशकता ही तो सनातन सीख भी है और संस्कृति भी। किसी से बेवजह का द्वेष और खुद के लाभ के लिए क्लेश, यहां मंजूर नहीं। विपक्ष ने कभी आपकी तरह आस्था को राजनैतिक व्यापार बनाने का प्रयास नहीं किया, पर जब अति हो गई तो कर्नाटक में उसने आपको, आपकी ही भाषा में जवाब दिया, नतीजे में आप चित हो गए और कांग्रेस बजरंग बली का आशीर्वाद पाने में सफल हो गई। यहां सत्ता में बने रहने के लिए विरोधियों पर दमन चक्र हजम नहीं होता। सियासी लाभ के लिए बार-बार सनातनी भावनाओं का सौदा यहां मान्य नहीं होता। यदि अब भी आपकी नीति नहीं बदली, तो आनेवाले वक्त में इसी बदलाव की पिक्चर अन्य राज्यों में भी दिखेगी। जब तक आप इस फिल्म पर बैन लगाने की मांग करेंगे, जनता उसे टैक्स फ्री कर चुकी होगी।
उत्तरार्ध- बेजा बवाल और रणनीतिक लाभ