अनिल तिवारी-निवासी संपादक
दिल्ली में पॉलिग्राफिक टेस्ट के लिए लाए गए नराधम आफताब पूनावाला को ले जा रही पुलिस वैन के पीछे किसी ने नंगी तलवारें लहरा दीं, गुजरात में दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल के काफिले पर परंपरानुसार किसी ने कोई पत्थर मार दिया और गुजरात के चुनाव प्रचार के रंग और ढंग, दोनों बदल गए। नतीजे पहले ही तय हो गए। बात ध्रुवीकरण की नहीं है, चुनाव की बदली धुरी की है।
गुजरात में प्रचार का रंग और ढंग बदलने में इस बार सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी ने वैसे भी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रखी थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गली-गली, शहर-शहर प्रचार के लिए मजबूर होने के साथ-साथ भाजपा की पूरी कोर-कमेटी को गुजरात बचाने के लिए झोंक देना, अपने आप में कई सवालों की तरफ इशारा करता है। पार्टी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा से लेकर अमित शाह समेत ४० स्टार प्रचारकों की सूची में शामिल यूपी के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी तक, सब कोई, अपना सब कुछ छोड़कर इन दिनों गुजरात में डेरा जमाए बैठा है। चुनाव प्रचार में जुटा है। अपने भाषणों में तमाम प्रश्न उठा रहा है, मुद्दों को उछाला जा रहा है, यहां तक कि आलोचनाएं तक की जा रही हैं, तो किसके लिए? गुजरात में अपनी ही सत्ता को, भाजपा की सरकार को बचाने के लिए। उस सत्ता को, जो कभी देशभर में गुजरात के ‘विकास मॉडल’ का ढोल पीटा करती थी। गुजरात के विकास को ही, राष्ट्र के विकास का सर्वश्रेष्ठ मॉडल बताया करती थी। आज वो सत्ता ही प्रश्न कर रही है, आलोचनाएं कर रही है, मुद्दे उठा रही है, किसी अनजानी हताशा में विपक्ष को निशाने पर ले रही है। ऐसे में सवाल है कि आखिर यह क्यों हो रहा है? क्या भाजपा को अब अपने सामर्थ्य पर, अपने सुशासन और उत्तम प्रशासन पर भरोसा नहीं रहा? और यदि भरोसा है तो आखिर भाजपा के नेताओं को ऐसा करने की जरूरत ही क्यों पड़ रही है? जब गुजरात, देश के विकास का सर्वश्रेष्ठ मॉडल है, वहां निरंतर विकास और सामाजिक समरसता की गंगा बहती रही है। चारों ओर खुशहाली की फसल लहलहाती रही है, तो फिर क्यों सत्तापक्ष को विपक्ष पर हमला करना पड़ रहा है? विपक्ष की और उनके नेताओं की आलोचनाएं करनी पड़ रही हैं? वहां तो बीती सरकारें भी भाजपा की ही रही हैं। दशकों से वहां भाजपा का परचम फहरा तो रहा है। जब उन्हें इस बार भी अपना परचम फहराए जाने की पूरी उम्मीद है, गारंटी है तो फिर क्यों, कांग्रेस को कोसा जा रहा है? क्यों केजरीवाल पर निशाना साधा जा रहा है। उन्हें क्यों नेहरू और सरदार पटेल की बात करनी पड़ रही है? क्यों मेधा पाटकर को मुद्दा बनाया जा रहा है? और आखिर क्यों मल्लिकार्जुन खड़गे के बयान की आड़ ली जा रही है?
जब सब कुछ ठीक है, ‘ऑल इज वेल’ है तो फिर क्यों न गुजरात में विकास की बात की जाए? २७ वर्षों के खोया-पाया का हिसाब किया जाए? क्यों न मोरबी के हादसे को याद किया जाए? गुजरात की गरीबी और समस्याओं पर ध्यान केंद्रित किया जाए? क्यों न गुजरात का चुनाव गुजरात के नेताओं पर छोड़ दिया जाए, वहां के मतदाताओं को उसका फैसला करने दिया जाए? क्यों न प्रधानमंत्री को दिल्ली का काम करने के लिए मुक्त रखा जाए?
इतिहास गवाह है कि राज्यों के चुनाव में कभी केंद्र का ऐसा भारी-भरकम लाव-लश्कर नहीं उतरा होगा। देशभर की जनता के प्रश्नों को छोड़कर किसी राज्य विशेष पर सत्ताधारी पार्टी की ऊर्जा नहीं लगी होगी, जैसी गत ७-८ वर्षों से इस देश में व्यर्थ खर्च हो रही है। अबकी गुजरात में दिख रही है। दरअसल, भारतीय जनता पार्टी इस बार भली-भांति समझ चुकी है कि उसके पुराने विकास के पैंतरों से गुजरातियों का मन परिवर्तन नहीं होगा। ‘मन की बात’ का प्रभाव गुजरात में नहीं दिखेगा। सो, मतदाताओं को बरगलाने और मुद्दों को भटकाने के अलावा जीत के लिए गुजरात की सत्ता के पास कोई पर्याय शेष नहीं बचा है। न तो वो वक्त की बात कर सकती है और न ही हालात की। क्योंकि गुजरात में विकास और विश्वास के लिए, उसे भरपूर वक्त भी मिला है और मनमाफिक हालात भी। उसे कुछ नहीं मिला है तो हाल के वर्षों में वहां सत्ता और संगठन का नेतृत्व करनेवाली कोई साहसी शख्सियत। जो पिट्ठू बनकर नहीं, पहलवान बनकर काम कर सके। जो शरणागति छोड़कर साहस से आगे बढ़ सके। वहां जो मिले भी, तो उन्हें काम करने की स्वच्छंदता नहीं मिली। नतीजा यह हुआ कि आज गुजरात के बड़े चेहरों ने चुनाव से किनारा कर लिया। तब बाहर से बड़े चेहरे प्रचार के लिए आयात करने पड़े। उन चेहरों को गुजरात के विकास का गुणगान करने का कार्य सौंपा गया, जिन्होंने कभी गुजरात को ढंग से देखा भी नहीं है। न तो वे गुजराती के दर्द को जानते हैं, न ही उनके मर्ज को। लिहाजा, गुजरात का चुनाव प्रचार पहले दिन से जमीनी मुद्दों से भटकता रहा और उसे जानते-बूझते हुए भी भारतीय जनता पार्टी ने पटरी पर लाने का प्रयास नहीं किया क्योंकि मुद्दों का बेपटरी होना ही उनके हित में जो नजर आ रहा है।
आज मतदान केंद्रों में पहले चरण का मतदान हो रहा है तो चार दिनों बाद दूसरे व अंतिम चरण का मतदान होगा। तय मानिए कि इस बार भी गुजरात के जमीनी मुद्दों से बेअसर इस मतदान पर आफताब के क्रूर चेहरे की छाप भी होगी तो केजरीवाल की गाड़ी पर चले पत्थर की गूंज भी। कुछ नहीं होगा तो दूसरों की रैलियों में खुद के नाम के लगे नारों का प्रभाव!