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बेबाक: ‘सबका साथ, खुद का विकास’ अब और नहीं…

  • अनिल तिवारी

एक कहावत है ‘बोया पेड़ बबूल का आम कहां से होय!’ इन दिनों महाराष्ट्र की राजनीति में यह कहावत चरितार्थ होती नजर आ रही है। सत्ता पाने और शिवसेना को खत्म करने के लिए भारतीय जनता पार्टी ने एक बबूल का पेड़ बो तो दिया है, परंतु उसके कांटे अब उसी के पैरों में चुभने लगे हैं। साथ ही यह शूल भी उसके सीने में गड़ता जा रहा है कि अब इस बबूल से सत्ता का ताज कैसे छीना जाए? क्योंकि सत्ता में आने के बाद एकनाथ शिंदे गुट, न केवल दबंगई कर रहा है, बल्कि अब वह महिलाओं को भी निशाना बनाने लगा है। भाजपा ऊपर-ऊपर शिंदे गुट का कितना ही बचाव क्यों न करे, अंदर से वह जानती है कि इससे उसे बड़ा राजनीतिक नुकसान हो सकता है। खैर…
जिस पार्टी को दूसरों की सत्ता लूटने में रणनीति दिखती हो, जो साम-दाम-दंड-भेद की नीति को ही राजनीति मानती हो, वह यह देखकर कैसे संतुष्ट हो सकती है कि उसकी रण-नीति, उसकी राज-नीति का फल कोई दूसरा हजम कर रहा है। उसकी लूट-नीति का हासिल किसी और को ही मिल रहा है। क्या भाजपा ने शिवसेना को तोड़ने और महाराष्ट्र की सत्ता को लूटने की कूट-नीति पर इसलिए काम किया था कि अंत में जो सत्ता का सुख मिलेगा, वो किसी और के हिस्से जाएगा। यदि भाजपा को यही करना होता तो वह २०१९ में गठबंधन के वादे से नहीं मुकरी होती और ढाई-ढाई साल के फॉर्मूले से कन्नी नहीं काटती। वर्तमान राजनीति को कोई अंश मात्र भी समझता होगा या नई भाजपा को कोई लेश मात्र भी परखता होगा तो वह इस बात से कतई इनकार नहीं करेगा कि भाजपा ने एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाने के लिए यह कुटिल दांव नहीं खेला था। तो फिर क्यों यह दांव खेला गया? यह सर्वविदित है कि नई भाजपा अपने सबसे पुराने सहयोगी दल (जिसके कंधे पर सवार होकर उसने महाराष्ट्र से राष्ट्र तक का कठिन सफर तय किया उस) शिवसेना को नेस्तनाबूद कर देना चाहती है। वह भली-भांति जानती है कि शिवसेना को खत्म किए बिना महाराष्ट्र में उसका एकछत्र राज कभी नहीं हो सकता। सहयोगी दलों को खत्म करना नई भाजपा की कूटनीति भी है और रणनीति भी।
भाजपा ने पिछले एक अर्से में एनडीए के उन सभी घटक दलों को निपटाने का कार्य किया है जो एनडीए में अच्छी-खासी ताकत रखते थे। फिर वह शिवसेना हो, अकाली दल हो, लोक जनशक्ति पार्टी हो, टीडीपी हो या फिर नीतीश बाबू की जनता दल ही क्यों न हो। नई भाजपा ने अपने गठबंधन के बड़े-बड़े घटक दलों को समाप्त करने की रणनीति पर ही अपनी राजनीति की नींव रखी है। नई भाजपा समझतीr है कि यदि उसे अपना वोट बैंक बढ़ाना है तो अपने सम विचारी राजनीतिक दलों को खत्म करना होगा। नई भाजपा हिंदुस्थान की राजनीति में हिंदुत्व की मोनोपोली हासिल करना चाहती है। वह विपक्षी पार्टियों के वोट बैंक पर फोकस ही नहीं करना चाहती, जो वोटर लाख कोशिशों के बाद भी उसके होने से कतराएं, ऐसों पर दांव लगाने से बेहतर अपनी विचारधारा, अपनी आइडियोलॉजी से इत्तेफाक रखने वालों के वोट बैंक को हथियाने में ही नई भाजपा को लाभ दिखाई देता है। इसी कुनीति पर कदम बढ़ाते हुए वो शिवसेना को खत्म करने पर तुली है। ‘सबका साथ, खुद का विकास’ का इससे बेहतर उदाहरण कोई दूसरा नहीं हो सकता। अलबत्ता, भाजपा यहां भूल रही है कि मित्र पक्षों की जमीन उजाड़ कर अपनी फसल बढ़ाने का खेल वो शिवसेना के मामले में नहीं खेल सकती। शिवसेना, हिंदूहृदयसम्राट बालासाहेब ठाकरे की पार्टी है और इस पार्टी में कार्यकर्ता नहीं, बल्कि सैनिक हुआ करते हैं। कोई दिल्ली की चारदीवारी में बैठकर यह मुगालता पाल ले कि उसने शिवसेना को तोड़ लिया है और ठाकरे ब्रांड नेम को खत्म कर दिया है तो उसे नींद से जाग जाना चाहिए। उसके दो-चार झटकों से शिवसेना कमजोर तो हो सकती है, पर टूट नहीं सकती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण उसने बीते कुछ महीनों में देख भी लिया है। शिवसेना और ठाकरे नाम में जो बॉन्डिंग है, वह गद्दारों की छोटी-मोटी दरारों से दरक नहीं सकती। क्योंकि शिवसेना पार्टी नहीं है, बल्कि राष्ट्र भक्तों की एक सेना है। उसके साथ भले ही उसके अपनों ने, उसके मित्रों ने घात किया हो, उसकी कुछ शाखाओं (नेताओं) को वटवृक्ष से अलग कर दिया हो पर उसकी जनहितकारी शाखाओं (क्षेत्रीय कार्यालयों) ने आम जनमानस के भीतर तक जगह बना रखी है। इसलिए उसे कोई भी अलग नहीं कर सकता, जनता से तोड़ नहीं सकता। अतीत भी गवाह है कि इस देश में पार्टियां टूटी हैं, ‘सेना’ नहीं।
फलों का राजा आम ही होता है। परंतु ‘आम’ होने के बावजूद भी वह सबमें खास होता है। यदि कोई छल से, कपट से या किसी षड्यंत्र से, आम के वृक्ष का नाम और उसके फल लेकर बबूल के वृक्ष को दे भी दे, तब भी बबूल आम नहीं बन सकता। कुछ कीट-पतंगों और टिड्डियों के हमले से आम की एक-आध फसल पर असर पड़ सकता है पर उसके भीतर से वर्ष-प्रतिवर्ष निकलने वाली अद्भुत मिठास पर नहीं। समय के साथ शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) यह पक्ष फिर से घना भी होगा और छायादार भी, क्योंकि न तो इसकी नीयत में कभी खोट थी, न ही नीति में। इसलिए, जहां तक महाराष्ट्र का सवाल है, यहां के नागरिकों का सवाल है तो उनके मन में शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) ही असली शिवसेना है। फिर चाहे कोई उसे बदलने के कितने ही प्रयास क्यों न कर ले, उन्हें असफलता ही हाथ लगेगी। शिवसेना का नाम और चिह्न झपट कर किसी को सौंप देने से, वो ‘आम’ नहीं बन सकता। वह राष्ट्र और महाराष्ट्र की राजनीति में कभी ‘खास’ नहीं हो सकता, महाराष्ट्र के जनमानस के मनोमस्तिष्क में जो नाम और चिह्न छपा है उसे मिटा पाना इतना आसान नहीं है।

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