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बेबाक: स्टेशन ‘फाइव स्टार’ हो या सुरक्षा?

अनिल तिवारी
केंद्र की भाजपानीत सरकार के हवाले से इन दिनों एक खबर सुर्खियों में है, जिसके तहत देश के कुछ ५०८ रेलवे स्टेशनों को रिडेवलप करने का विषय चर्चा में है। अव्वल तो यह कि यह कोई नई योजना नहीं है। गत दो-ढाई वर्षों में मोदी सरकार इस योजना का ढोल पीटकर कई बार पॉलिटिकल माइलेज ले भी चुकी है। उस पर सवाल यह कि क्या यह वाकई रिडेवलपमेंट है या निजीकरण की ओर एक बड़ा कदम? क्योंकि जो तर्क दिए जा रहे हैं और जो योजना बताई जा रही है, उसकी मूल भावना में निजीकरण की ही बू आती दिख रही है और वैसा बहुत कुछ होता नजर भी आ रहा है। खैर, रेलवे के लिए बहुत सी प्राथमिकताएं हैं, उन पर चर्चा करने से पहले इसी विषय को समझते हैं।
आपको शायद याद हो कि जुलाई २०२१ से अब तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गांधीनगर वैâपिटल, रानी कमलापति, चेन्नई एग्मोर, रामेश्वरम, काटपाडी, कन्याकुमारी, उधना, सूरत, सोमनाथ, साबरमती, बंगलुरु वैंâट, यशवंतपुर, सर एम. विश्वेश्वरैया, रांची, एर्नाकुलम, एर्नाकुलम टाउन, नई दिल्ली, अमदाबाद, कोल्लम, विशाखापट्टनम, नागपुर, अजनी, न्यू जलपाईगुड़ी, छत्रपति शिवाजी महाराज टर्मिनस और हाल ही में अप्रैल २०२३ में सिकंदराबाद रेलवे स्टेशन के रिडेवलपमेंट की आधारशिला रख चुके हैं। इस बीच बेलगाम रेलवे स्टेशन की एक इमारत का उद्घाटन भी हो चुका है। यह सभी कार्य उस परियोजना का हिस्सा हैं, जिसके तहत देश के चुनिंदा १,३०९ रेलवे स्टेशनों का विकास होना है। ऐसे में नए सिरे से ५०८ रेलवे स्टेशनों के ढोल पीटने का न तो कोई तुक है, न ही तर्क। मोदी जी अपनी सुविधा और विधानसभा चुनावों के टाइम टेबल के आधार पर इस ‘विकास’ की आधारशिला रखते नजर आ ही जाते हैं। इसलिए यहां महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि कुल २४,४७० करोड़ रुपयों में ५०८ रेलवे स्टेशनों में से असल विकास होगा, तो कितनों का? जिस आधार पर हाल ही में सिकंदराबाद रेलवे स्टेशन के रिडेवलपमेंट का खर्च ७२० करोड़ रुपए बताया गया था, उस आधार पर तो इतनी राशि में बमुश्किल ३० से ३५ रेलवे स्टेशनों का ही रिडेवलपमेंट हो पाएगा। किसी स्टेशन को ‘फाइव स्टार’ की तर्ज पर आइकॉनिक इमारत में तब्दील करके वहां विश्व स्तरीय सुविधाएं उपलब्ध कराने और समग्र मेकओवर पर इतना खर्च तो अपेक्षित भी है। फिर बाकी बचे स्टेशनों का विकास वैâसे होगा, यह अहम सवाल है। रेलवे स्टेशनों के नियमित रखरखाव और डेवलपमेंट पर आवश्यकता के अनुसार, ५ से १० करोड़ रुपए की राशि आमतौर पर भी खर्च होती ही है। वही राशि इस योजना में भी खर्च होगी, केवल अब उसे ‘अमृत भारत स्टेशन योजना’ का नाम दे दिया गया है। अधिकांश स्टेशनों के रिडेवलपमेंट के लिए काफी कम राशि मिलेगी, सिर्फ गिनती के १५ से २० स्टेशनों को बमुश्किल ३००-४०० करोड़ की राशि उपलब्ध हो सकेगी, जो सिकंदराबाद स्टेशन के मामले में पहले ही नजर आ चुका है।
हिंदुस्थान जैसे गरीब देश में जहां ३० से ३५ प्रतिशत आबादी के पास यात्रा के लिए केवल एकमात्र पर्याय रेलवे के रूप में उपलब्ध हो और ८५ प्रतिशत से अधिक यात्री उस पर पूरी तरह से निर्भर हों, वहां लोगों को ‘फाइव स्टार’ अनुभव से ज्यादा जरूरी सुरक्षा नजर आती है। जिस देश में बालासोर जैसी तिहरी रेल दुर्घटना होती हो, वहां ये जरूरी भी हो जाता है। वित्त बजट २३-२४ पेश करते वक्त वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा भी था कि रेलवे स्टेशनों की साफ-सफाई और सुरक्षा हमारी प्राथमिकता हैं, पर उड़ीसा हादसे के बाद भी न तो वह सफाई नजर आई, न ही वो प्राथमिकता। दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई और मुंबई समेत देश भर के तमाम स्टेशनों की दुर्दशा सामने है ही। आम रेल यात्री को रेलवे स्टेशनों पर सिर्फ मूलभूत सुविधाएं चाहिए, साफ-सफाई चाहिए और कुछ चाहिए तो यात्रा सुरक्षा की गारंटी। फिर वो स्टेशन दिखने में सामान्य हो या ‘फाइव स्टार’, उसे उससे कोई सरोकार नहीं है, क्योंकि वो जानता है कि जिस युग में रेलवे परिसर में कदम रखने से लेकर प्लेटफॉर्म पर चढ़ने और वेटिंग रूम की सेवाएं लेने तक जेब ढीली करनी पड़ती हो, वहां विश्व स्तरीय आइकॉनिक स्टेशनों पर मुफ्त में तो कोई सुविधा मिलेगी नहीं! रेल मंत्री भले ही किराया न बढ़ाने का वादा कर रहे हों, पर अतिरिक्त सेवा शुल्क के बेकाबू होने का भरोसा भी तो नहीं दे रहे हैं। जब ‘फाइव स्टार’ स्टेशनों पर ब्रांडेड और वातानुकूलित सेवाएं होंगी तो उनकी कीमत भी तो यात्रियों को ही चुकानी पड़ेगी। शोरूम जितना बड़ा होगा, कीमतें भी उतनी ही ऊंची होंगी। इसलिए यात्रियों को ऐसे मॉर्डनाइजेशन से सेफ्टी का मुद्दा ज्यादा अहम लगता है, परंतु सरकार वो देना इसलिए नहीं चाहती कि सेफ्टी से फेसलिफ्ट का मौका नहीं मिलता। जबकि चमकते-दमकते स्टेशनों से प्रचार का भरपूर माइलेज मिलता है। यही वजह है कि सुरक्षा का मुद्दा चमक की रफ्तार में पीछे छूट रहा है, ट्रेक रिन्यूवल और ट्रेक फेंसिंग जैसे सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर गौर नहीं हो रहा।
आज सवाल यह नहीं है कि सरकार कितने स्टेशनों को ‘फाइव स्टार’ बना रही है, बल्कि यह है कि वो वंदे भारत जैसी सेमी हाई स्पीड ट्रेन को फाइव स्टार सुरक्षा देने में कितनी तत्पर है? जिसे लेकर आए दिन हादसों की खबर आ रही है। परंपरागत ट्रेनों और सुपरफास्ट ट्रेनों को सरकार कितनी सुरक्षा दे पा रही है? वो रेल सिस्टम कितना उन्नत और सुधारित कर पा रही है और मौजूदा रेल नेटवर्क का कितना विस्तार कर रही है? साथ ही सवाल यह भी है कि उड़ीसा हादसे के बाद परंपरागत सिस्टम और रोलिंग स्टॉक (रेल कोच) में कितना सुधार हो रहा है? और क्या अब भी हमारी प्राथमिकता में सुरक्षा शुमार हो पाई है क्या?
गत पांच वर्षों में भारतीय रेलवे ने ट्रैक रिन्यूवल पर महज ५८ हजार करोड़ ही खर्च किए हो तो ये सवाल स्वाभाविक हो भी जाते हैं। सुरक्षा संबंधी कार्यों पर ९ वर्षों में १ लाख ७८ हजार करोड़ ही खर्च होते हैं तो चिंता बढ़ ही जाती है। नि:संदेह मोदी सरकार ने ९ वर्षों के कार्यकाल में इस मद में पहले की तुलना में अधिक खर्च किया है फिर भी पटरियों और सुरक्षा संबंधी उपकरणों की दयनीय स्थिति देखकर यह वृद्धि नाकाफी नजर आती है, जिसे बेजा खर्च होनेवाले स्टेशनों के मॉर्डनाइजेशन बजट से संतुलित किया जा सकता था। यही रेलवे की असल प्राथमिकता होनी चाहिए। यही आज देश की जरूरत भी है। ३५ हजार करोड़ के कर्ज में डूबी भारतीय रेलवे के लिए स्टेशन मॉर्डनाइजेशन के बाद अलग से सेफ्टी खर्च करना कितना संभव हो पाएगा, यह तो आनेवाला वक्त ही बताएगा। साथ ही आनेवाला वक्त ये भी बताएगा कि मोदी सरकार के लिए स्टेशनों को आइकॉनिक बनाना जरूरी था या रेल इंप्रâास्ट्रक्चर को अपग्रेड करना? खैर, प्राथमिकता सरकार को तय करनी है और जनता को तय करना है तो अपना ‘मत’!

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