मुख्यपृष्ठस्तंभसत्ता के लालच में साख गंवाती भाजपा

सत्ता के लालच में साख गंवाती भाजपा

रमेश सर्राफ धमोरा
झुंझनू, राजस्थान

कभी चाल, चरित्र, चेहरे की बात करने वाली भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) अब पूरी तरह से बदल गई है। सत्ता के लालच ने भाजपा का चरित्र ही बदलकर रख दिया है। देश में कम्युनिस्ट पार्टियों के बाद अनुशासन के मामले में सख्त मानी जाने वाली भाजपा का अनुशासन अब तार-तार हो गया है। भाजपा में वफादारी की बात करना अब बेमानी हो गया है। सत्ता के लालच में पार्टी के नेता कब-कौन सा कदम उठा लें, किसी को पता नहीं है। २०१४ के बाद तो भाजपा पूरी तरह बदल गई है। इस समय की भाजपा सत्ता की इतनी भूखी हो गई है कि सत्ता मिलते देख वह अपने जन्मजात दुश्मनों को भी गले लगाने से परहेज नहीं कर रही है।
जब १९८० में जनता पार्टी से अलग होकर भाजपा का गठन किया गया था। उस समय राजनीतिक रूप से तो भाजपा कमजोर थी, मगर चारित्रिक रूप से बहुत मजबूत थी। भाजपा के अनुशासन व संगठन को लेकर सभी राजनीतिक दलों में चर्चाएं होती थीं। अपने वफादार कार्यकर्ताओं के बल पर भाजपा हर समय संघर्ष करने को तैयार रहती थी। पार्टी नेताओं के एक इशारे पर पार्टी वैâडर मरने-मारने पर उतारू हो जाता था। पार्टी के कार्यकर्ता भूखे रहकर महीनों तक चुनाव में पार्टी के लिए मेहनत करते थे।
मगर अब नजारा पूरी तरह से बदल गया है। आज भाजपा का कार्यकर्ता सुविधाभोगी हो गया है। सबको सत्ता का लालच आ गया है। पार्टी की स्थापना करने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, नानाजी देशमुख, विजय राजे सिंधिया, भैरोंसिंह शेखावत, कुशाभाऊ ठाकरे, सुंदर सिंह भंडारी, कल्याण सिंह, मुरली मनोहर जोशी, शांता कुमार, सुंदरलाल पटवा, श्यामाचरण सकलेचा, मदन लाल खुराना, जगदीश प्रसाद माथुर, विजय कुमार मल्होत्रा, जाना कृष्णमूर्ति, एम वेंवैâया नायडू, सूरजभान जैसे बहुत से नेताओं ने पार्टी को बनाने में अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया था। पार्टी में इन वरिष्ठ नेताओं का जब तक दबदबा रहा, तब तक पार्टी सत्ता पाने की दौड़ में शामिल नहीं हुई थी।
अटल, आडवाणी युग में भाजपा ने अपने को जमीनी स्तर पर बहुत मजबूत किया था। इसी का यह नतीजा है कि आज भाजपा देश में शासन कर रही है। एक समय था जब अटल बिहारी वाजपेयी ने सिद्धांतों से समझौता नहीं करके प्रधानमंत्री का पद गवां दिया था। उस दौर में पार्टी के लिए सत्ता से बड़े सिद्धांत होते थे, मगर अब सब कुछ बदल गया है। आज के समय में सत्ता हासिल करना ही पार्टी का मुख्य उद्देश्य बन गया है।
२०१४ में जब नरेंद्र मोदी पहली बार प्रधानमंत्री बने और अमित शाह पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने उसके बाद से पार्टी में पुराने नेताओं, पुराने कार्यकर्ताओं को धीरे-धीरे पीछे धकेला जाने लगा। उनके स्थान पर फाइव स्टार कल्चर के नए-नए लोगों को आगे बढ़ाया जाने लगा। भाजपा के बारे में माना जाता था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का पार्टी पर पूरा नियंत्रण रहता है। संघ की इजाजत के बिना पार्टी में पत्ता भी नहीं हिल सकता है। मगर मौजूदा परिस्थितियों में लगता है कि संघ का पार्टी पर से नियंत्रण समाप्त हो गया है। संघ के पदाधिकारी भी आज मौन रहकर पार्टी के सत्तालोलुप स्वरूप को देख रहे हैं। पार्टी की नीतियों में हस्तक्षेप करने की संघ में भी हिम्मत नहीं रह गई है। इसीलिए भाजपा के बड़े नेता मन मुताबिक पैâसले लेकर काम कर रहे हैं।
आज भाजपा में दूसरे दलों से आए नेताओं का बोलबाला हो रहा है। पार्टी के शासन वाले बहुत से राज्यों में दूसरे दलों से आए नेताओं को मुख्यमंत्री, मंत्री बनाया गया है। ऐसे ही संगठन में दूसरी पार्टी से आए नेता प्रमुख पदों पर बैठे हुए हैं। हाल ही में पंजाब भाजपा के अध्यक्ष बनाए गए सुनील जाखड़ तो कुछ माह पूर्व ही भाजपा में शामिल हुए थे। कांग्रेस पार्टी में तवज्जो नहीं मिलने के चलते सुनील जाखड़ भाजपा में आ गए थे। पूर्व में वे पंजाब कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष भी रह चुके हैं। इसी तरह असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा, त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक साहा, अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पेमा खांडू, मणिपुर के मुख्यमंत्री एन वीरेंन सिंह कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल होकर सत्ता की मलाई खा रहे हैं। उन प्रदेशों में जो पार्टी वैâडर के कार्यकर्ता थे उनका आज पता-ठिकाना भी नहीं है कि वो लोग कहां गुमनामी में खो गए हैं।
आज भाजपा अपने सभी सिद्धांतों को तिलांजलि दे चुकी है। भाजपा जहां चुनाव नहीं जीत सकती, वहां जोड़-तोड़ कर सरकार बनाना शुरू कर देती है। अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर इसके पहले शिकार हुए। उसके बाद तो जोड़-तोड़ कर सरकार बनाना भाजपा का मुख्य एजेंडा ही बन गया है। २०१८ में कर्नाटक व मध्य प्रदेश में विधानसभा का चुनाव हार जाने के बाद भाजपा ने वहां दल-बदल करवाकर अपनी सरकार बना ली थी। उसी का नतीजा है कि पिछले दिनों संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा को कर्नाटक में करारी हार झेलनी पड़ी थी। इसी तरह महाराष्ट्र में भी भाजपा ने पहले शिवसेना में और अब राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में तोड़-फोड़ करवा कर अपनी सरकार बनाई है।
हालांकि, भाजपा के नेताओं को भी पता लग गया है कि जोड़-तोड़ कर बनाई सरकार को मतदाता स्वीकार नहीं करते हैं। मतदाताओं को ज्ाब भी कर्नाटक की तरह मौका मिलता है वह भाजपा को बुरी तरह हरवा देते हैं। इसी साल के अंत में मध्य प्रदेश विधानसभा के चुनाव होने हैं। मौजूदा परिस्थितियों से वहां किसी भी स्थिति में भाजपा जीतती नहीं लग रही है। इसी तरह महाराष्ट्र में भी एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में भाजपा सहित कई दलों की सरकार चल रही है। मगर आम जनता में शिंदे सरकार की नकारात्मक छवि बनती जा रही है। गठबंधन सरकार में चल रही आपसी खींचतान के चलते महाराष्ट्र मंत्रिमंडल में बहुत से पद खाली पड़े हैं। प्रदेश में विकास की गति धीमी पड़ गई है।
भाजपा आलाकमान ने यदि दूसरे दलों की सरकार को गिरा कर अपनी सरकार बनाने की नीति नहीं बदली तो आने वाले समय में पार्टी के वफादार लोग पार्टी से दूर होते चले जाएंगे। फिर भाजपा सिर्फ दल-बदलू व मौकापरस्त लोगों का जमावड़ा रह जाएगी। जिनके बल पर भाजपा लंबे समय तक सत्ता में नहीं रह पाएगी। भाजपा के कमजोर होते ही दूसरे दलों से आए दल-बदलू नेता भी पार्टी छोड़कर अपना नया ठिकाना ढूंढ़ने लगेंगे।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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