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पुस्तक समीक्षा : गीता माता की सेवा में समर्पित `भगवानुवाच श्रीमद्भगवद्गीता…’

राजेश विक्रांत
श्रीमद्भगवद्गीता वर्तमान में धर्म से ज्यादा जीवन के प्रति अपने दार्शनिक दृष्टिकोण को लेकर भारत में ही नहीं विदेशों में भी लोगों का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित कर रही है। निष्काम कर्म का गीता का संदेश प्रबंधन गुरुओं को भी लुभा रहा है। हजारों साल पहले लिखी गई श्रीमद्भगवद्गीता का विश्लेषण प्रत्येक विद्वान द्वारा अलग-अलग ढंग से किया गया है और इस कलियुग में जब उम्र में सिर्फ २५ साल के अंतर होने के बावजूद पुत्र अपने पिता की बात नहीं समझ पाता, तो फिर हजारों साल बाद आशय किस तरह समझा जाएगा? लेकिन यह दुष्कर कार्य संभव कर दिखाया है, वाराणसी के विद्वान ह्रषीकेश ने। उन्होंने श्री भगवानुवाच श्रीमद्भगवद्गीता (अनिवर्चनीय भक्ति माता का साक्षात्कार करवाने वाली उन्हीं की वांग्मय मूर्ति…) का सृजन किया है।
यह ग्रंथ गीता माता की सेवा में रचा गया है। लेखक के अनुसार, `गीता माता की सेवा के लिए योग्यता और संबल देने की आपसे प्रार्थना की थी। आपने दिया। आपके दिए कृपामृत को जुटाकर इस पवित्र पुस्तक-पात्र में रख दिया। आपकी कृपा-कटाक्ष के इस मूर्त फल को आज आपके चरणों में अर्पित कर इसे आपका प्रसाद भी बना दिया। मुझे विश्वास है कि भक्तिमाता का दिव्य विग्रह रूप यह भगवद् प्रसादामृत ग्रंथ भारत के विषाद हरण व मंगल अवतरण का पवित्र हेतु बनेगा।’
इस ग्रंथ के प्रणयन का ध्येय है कि लोग स्व-स्वरूप बोध अर्जित करने को जीवन के लक्ष्यों में प्रमुख स्थान दे सकें व इस लक्ष्य को प्राप्त करके सर्वात्मा की सेवा में अपना जीवनधन झोंक सकें। इस ग्रंथ के दो खंड हैं। पहले खंड में गीता माता के श्लोकों का भावार्थ और कुछ श्लोकों की संक्षिप्त व्याख्या है। अध्याय १ से अध्याय २ के श्लोक संख्या १० तक युद्धभूमि में खड़े अर्जुन के विषाद का प्रसंग है। इसे पाठक प्रस्तावना समझें। जिस तरह हम अपने दैनंदिन जीवन में संवादहीनता के कारण कई बार गलतफहमियों के शिकार बन जाते हैं और जिसके कारण हम सही अर्थ से वंचित रह जाते हैं, ठीक उसी प्रकार स्वाभाविक रूप से समय के साथ भगवद्गीता का मूल (गूढ़) अर्थ भी लुप्त हो गया है। यदि कोई भगवद्गीता का सारांश यथार्थ रूप से समझने में सक्षम हो तो वह परम सत्य का अनुभव कर राग (बंधन) की भ्रांति व संसार के दुखों में से मुक्त हो सकता है। हर वक्त सम्मुख उपस्थित ईश्वर से अपने क्रिया, विचारणा, प्राण और उत्तरोत्तर अधिकाधिक जोड़ते जाने से है। यही भक्ति भी है। यह अमृत फल देते हैं। खंड २ में आदिगुरु शंकराचार्य जी की तत्वबोध पुस्तिका के अधिकांश अंश, उपनिषदों आदि से संदर्भ, ब्रह्मर्षि नारद कृत भक्तिसूत्र के कुछ अंश व सृष्टि विस्तार से संबंधित विषयांश भागवत पुराण से लिए गए हैं।
अब सवाल ये है कि गीता माता पर इतनी महान टीकाओं के बीच में आप यह ग्रंथ भी क्यों पढ़ें? लेखक के अनुसार, `पदार्थ’ अपने स्वरूप से मुक्त होकर `ऊर्जा’ रूप में रहता है। उसी प्रकार `ऊर्जा’ अपने स्वरूप से मुक्त होकर किस रूप में स्थित होती है? क्या कुछ ऐसा भी है जो अमृत है, जिसके कारण ज्ञान, ऊर्जा और पदार्थ का अस्तित्व है? कहा जाता है कि सृष्टि पांच तत्वों से मिल कर बनी है। लेकिन ये पांच खुद किस एक तत्व से बने हैं? वे कौन-से तीन कार्य हैं, जिन्हें ध्यान देकर कोई अपने जीवन का उत्कर्ष कर सकता है? सृष्टि जिस गर्भ से उत्पन्न हुई है, उसका स्वरूप क्या है? क्या `बंधन’ नामक कोई वास्तविक चीज है? यदि हां, तो `मुक्ति’ कैसे मिलती है? क्या `आसक्ति’ को `भक्ति’ और `काम’ को विशुद्ध त्यागमय `प्रेम’ में परिवर्तित किया जा सकता है? क्या हम ऐसे बन सकते हैं कि दु:ख हमको छू तक न सकें? ईश्वर है? तो कैसा है? कहां है? वो हमारे लिए क्या-क्या-क्या करता है? उस तक कैसे पहुंचा जा सकता है? वह कैसे अवनति और उन्नति करता है? भगवान स्वयं किसकी रक्षा और पालन-पोषण करते हैं? क्या ऐसा कुछ है, जिसे पाकर फिर कुछ पाना या जानना शेष नहीं बचता है? ऐसी ही अनेकानेक जिज्ञासाओं का समाधान करते हुए यह ग्रंथ पाठक को पुष्ट-तुष्ट और आत्माराम बना सकता है। विपणन सहयोग गीता माता फाउंडेशन, वाराणसी का है। २५२ पृष्ठों के इस ग्रंथ का परमार्थिक सहयोग अमूल्य लेकिन आर्थिक सहयोग २२१ रुपए है।

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