राजेश विक्रांत
मुंबई ही नहीं, अपितु देश-विदेश में महेश दुबे का रचनाकर्म मशहूर है। वे हरफनमौला रचनाकार हैं। हास्यकवि, गीतकार, व्यंग्यकार, स्तंभकार, लघुकथाकार व गजलगो हैं। रहस्य कथाएं लिखने में भी लाजवाब हैं। सबसे बड़ी बात सहज, सरल व विनम्र हैं और हमेशा सक्रिय रहते हैं। `महेश दुबे का पुलिंदा’, `फिर भी दिल है हिंदुस्तानी’, `निंदा रस’ व `महेश दुबे की रहस्यमयी कहानियां’ के बाद उनकी ताजा कृति है `पंख’। ये गजल संग्रह है। इसे परिदृश्य प्रकाशन, मुंबई ने प्रकाशित किया है।
`पंख’ में कुल ७० गजलें हैं। सभी शऊर व सलीके से भरपूर। इन गजलों में भाषा व कथ्य सहज है। वे मनुष्यता के पक्षधर हैं। सामाजिक विसंगतियों पर निरंतर प्रहार करते हैं।
`पंख’ की गजलें यह भी बताती हैं कि महेश दुबे का अनुभव संसार बहुत व्यापक है। इसीलिए फानी जौनपुरी ने सही लिखा है कि हकीकत की जमीन पर एहसास की खेती है महेश दुबे की शायरी। पूरी पुस्तक इस तरह के शेरों से लबालब है। कुछ उदाहरण देखें- कोई अब तक नहीं समझ पाया, दिल से कितना है फासला दिल का/हमने सूखे हुए फूलों को संभाला अक्सर, लोग खिलती हुई कलियों को मसल देते हैं/पहले रकीब से भी था रिश्ता सलाम का, अब बातचीत भी तो नहीं हमनवा के साथ/ जब से मिला है हुक्म कि हंसते रहो सदा, मेरे शहर का आदमी काफी उदास है/कौन ऐसा जानवर है जो कहे बस मैं ही मैं, यह खराबी सिर्फ आदमजात में पाई गई/रहता है एक पाजी-सा बच्चा मेरे अंदर, दुनिया के चलन देख कर हैरान बहुत है/एक शेर सुनने में वक्त नहीं लगता, कहने में ही कई जमाने लगते हैं/ तिनका कोई मिले तो उसे तीर बनाना, इंसा के हाथ में होता है तकदीर बनाना।
मुंबई के सबसे मौलिक कवियों में से एक महेश दुबे हास्य-व्यंग्य के मंच को भी गंभीर कविता की तरफ मोड़ देने में सक्षम हैं। उन्होंने `पंख’ के पन्ने-पन्ने पर जीवन के उतार-चढ़ाव के चित्र उकेरे हैं। इसमें प्रेरक बाते हैं। जमाने की हकीकत है और एक कवि का सामाजिक सरोकार है। इन सभी को वो बिना लाग-लपेट के काव्यात्मक रूप देते हैं।
कुल मिलाकर समस्त सामाजिक सरोकार `पंख’ पर सवार हैं। गंभीर गजलों के पाठकों को `पंख’ जरूर पसंद आएगी। राकेश शर्मा, फानी जौनपुरी एवं अमर त्रिपाठी के मन्तव्य इसके साथ बोनस के रूप में मिलते हैं। ८८ पृष्ठों का `पंख’ १५० रुपए में मिल जाएगा।