राजेश विक्रांत
डॉ. प्रदीप उपाध्याय देश के उन चंद प्रतिष्ठित व्यंग्यकारों में हैं, जो हर रोज लिखते हैं और देश के अनेक नामचीन अखबारों में छपते हैं। असम से लेकर आंध्र प्रदेश तक उनका लेखन लोकप्रिय है। मतलब वे लब्ध प्रतिष्ठित व्यंग्यकार हैं। अब तक उनके ७ व्यंग्य संग्रह-मौसमी भावनाएं, सठियाने की दहलीज पर, बतोलेबाजी का ठप्पा, मैं ऐसा क्यों हूं, प्रयोग जारी है तथा ये दुनिया वाले पूछेंगे प्रकाशित हो चुके हैं। `व्यंग्य की तिरपाल’ उनका आठवां व्यंग्य संग्रह है। इसमें कुल ४६ व्यंग्य हैं और सभी में तात्कालिक तेवर नजर आता है। बावजूद इसके उनके व्यंग्य का तीर सभी को घायल करता है और सामाजिक विसंगतियों के खिलाफ सोचने पर मजबूर करता है।
डॉ. प्रदीप पिछले चार दशक से अधिक समय से व्यंग्य लिख रहे हैं। व्यंग्यकार ने इस संग्रह की रचनाओं में वर्तमान समय में व्यवस्था में पैâली अव्यवस्थाओं, विसंगतियों, विकृतियों, विद्रूपताओं, खोखलेपन, पाखंड इत्यादि अनैतिक आचरणों को उजागर करके इन अनैतिक मानदंडों पर तीखे प्रहार किए हैं।
वैâसे समझें उसका इशारा! रुलाती हैं रोटियां तो शामत भी लाती हैं रोटियां, गोली से नहीं भाई बोली से, बेचारे बाप को तो बख्श दें हुजूर, मान-सम्मान और अपमान के यक्ष प्रश्न, गिरेबान-गिरेबान में अंतर होता है प्यारे!, अमीरी की खान से निकलता सत्यमेव जयते, अब हम बस लेखन ही करते हैं, चरण वंदना और रिश्तों में बनती गहराई, उखड़ती सांसों को वेंटिलेटर का सहारा, बहुत जल्दी आ गए हुजूर, मोटी चमड़ी के जीव पर तुलनात्मक निबंध, ये आंसू उनके दिल की जुबान हैं, एक से भले दो, पैंसठ पार का उनका वसंत, अब शर्म से सिर झुकाने की जरूरत नहीं, जो ना समझे वो अनाड़ी है, ऐ उम्र जरा ठहर जा, तुम रहो प्यारे मदमस्त, सड़क पर उतरने में कसर बाकी न रहे। व्यंग्य लेखों के इन शीर्षकों से समझा जा सकता है कि लेखक ने क्या लिखा होगा। उन्होंने सभी लेखों में अपनी सहज लेखन शैली से गहरी बात सामर्थ्य के साथ व्यक्त की हैं। `व्यंग्य की तिरपाल’ की सभी रचनाओं की भाषा, विचार और अभिव्यक्ति की शैली वैविध्यतापूर्ण है। हम कह चुके हैं कि अधिकांश व्यंग्य सामयिक घटनाओं पर आधारित हैं। फिर भी वे सभी रचनाएं पाठकों को वर्तमान विसंगतियों पर सोचने को मजबूर कर देती हैं। संग्रह की रचनाएं पाठकों के दिलों को छू लेती हैं, उसे झकझोरती हैं, सोचने पर मजबूर करती हैं। निखिल पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, आगरा द्वारा प्रकाशित `व्यंग्य की तिरपाल’ में ११२ पृष्ठ हैं और इसकी कीमत १२५ रुपए है।
आत्म साक्षात्कार में उन्होंने कहा है कि `व्यंग्य भी तो एक हथियार ही है। विसंगतियों, विद्रूपताओं के खिलाफ तीर तलवार लेकर सड़क पर नहीं उतर सकते तो शब्द बाण चलाकर लड़ने का माहौल बनाना व्यंग्य है यानी शाब्दिक हथियार चलाकर समाज के दुश्मनों से लोहा लेने की कला व्यंग्य है।’ व्यंग्य की तिरपाल के सभी पृष्ठों पर डॉ. प्रदीप का ये तेवर बरकरार है। इसलिए यह पुस्तक व्यंग्य का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज बन गई है। इसके लिए प्रदीप जी, बधाई के पात्र हैं। वे सोशल मीडिया पर खूब सक्रिय रहते हैं। एक अच्छे फोटोग्राफर हैं, कथाकार हैं। व्यंग्य के फलक पर देवास को उन्होंने एक सम्मानित मुकाम दिलाने में सफलता हासिल की है।
व्यंग्य के पाठक व्यंग्य की तिरपाल का भरपूर स्वागत करेंगे, ऐसी हमें आशा है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक मामलों के जानकार हैं।)