मुख्यपृष्ठस्तंभपुस्तक समीक्षा : दिल से लिखी गई; `दिल्ली का पहला प्यार...

पुस्तक समीक्षा : दिल से लिखी गई; `दिल्ली का पहला प्यार कनॉट प्लेस’

राजेश विक्रांत

पत्रकार-लेखक विवेक शुक्ल दिल से दिल्ली को जीते हैं तथा दिल में दिल्ली को महसूसते हैं। ठीक उसी तरह जैसे विमल मिश्र के मन में मुंबई, डॉ. योगेश प्रवीण के मन में लखनऊ व अवध बसा हुआ है। विवेक जी लगभग साढ़े तीन दशकों से हिंदी-अंग्रेजी में लिख रहे हैं। अब तक दिल्ली के अलग-अलग पहलुओं पर ढाई हजार से ज्यादा लेख, फीचर और रिपोर्ट लिख चुके हैं। गांधीजी के दिल्ली से संबंधों पर इनकी एक पुस्तक २०१९ में प्रकाशित होकर खूब चर्चित हुई थी। इनकी नई पुस्तक ‘दिल्ली का पहला प्यार कनॉट प्लेस’ है। २९ अध्यायों वाली १३१ पृष्ठों की इस पुस्तक को प्रतिबिंब प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। यह किताब दिल्ली की नब्ज टटोलती है, धड़कनों को सुनती है और उनमें समाहित संगीत को पाठकों तक पहुंचाती है।
आमतौर पर इतिहास लेखन एक उबाऊ व बोझिल विषय होता है। इसमें दिलचस्पी रखने वाले कुछेक लोगों को छोड़कर बाकी इतिहास से दूर भागते हैं। लेकिन विवेक जी ऐतिहासिक दस्तावेजों को नहीं तलाशते, संदर्भ ग्रंथों के साथ मगजमारी नहीं करते बल्कि यहां की हवाओं में घुली दिल्ली की आत्मा से राब्ता करते हैं। दरअसल, विवेक इसी इलाके के निवासी रहे हैं। वे बचपन में कनॉट प्लेस में अपने मां-बाप की बातचीत का जिक्र करते हैं।
‘सुनो जी, यह कौन-सी बिल्डिंग बन रही है? `बहुत सुंदर है।’ पापाजी ने मां को बताया था कि ‘यह बैंक ऑफ बड़ौदा की बिल्डिंग है।’ सच में उस दौर में बैंक ऑफ बड़ौदा को कनॉट प्लेस की सबसे भव्य और बेहतरीन बिल्डिंग माना जाता था।
इस पुस्तक को लिखने का उद्देश्य बकौल विवेक, ‘बात सिर्फ इसकी दीवारों, बरामदों, शोरूम, विंडो शॉपिंग तक ही सीमित न रह जाए इसलिए कनॉट प्लेस के पेड़ों, परिंदों, शख्सियतों और सड़कों वगैरह के साथ भी इंसाफ किया जाए। मुझे यह किताब लिखने का मन इसलिए भी हुआ क्योंकि इसके आर्किटेक्ट रॉबर्ट टोर रसेल (१८८८-१९७२) की कहीं कोई बात नहीं होती। वह अप्रतिम आर्किटेक्ट थे। उन्होंने दिल्ली को सबसे शानदार लैंडमार्क दिया, पर वह गुमनामी में रहे। उन्हें गुमनामी के अंधेरे से निकालने की भी चाहत थी।’
दिल्ली का पहला प्यार…पाठकों को कई दिलचस्प बातें बताएगी।
डॉ. लोहिया का कनॉट प्लेस से आत्मीय रिश्ता रहा। दुनिया में चाहे जो हो लेकिन यहां पर चीनी और तिब्बती बहुत प्रेम से रहते हैं। कनॉट प्लेस १९४२ और फिर १९८४ के सिख दंगों में जला था। कॉफी हाउस की बात, एंग्लो इंडियन समाज व केरल की दास्तान, कनॉट प्लेस से लंदन जानेवाली बसों का विवरण आदि तमाम बातें विवेक की लेखनी जीवंत कर देती है। दिल्ली का शहीद भगत सिंह के क्रांतिकारी जीवन से गहरा रिश्ता रहा है। दिल्ली में उनका बार-बार आना-जाना लगा रहता था। इस रिश्ते की विस्तृत पड़ताल विवेक जी ने पुस्तक में की है। पुस्तक में १९७१ का बहुचर्चित ६० लाख रुपए का नागरवाला बैंक घोटाला भी है। आज तक अनसुलझी इस गुत्थी को सुलझाने के लिए केंद्र में जनता पार्टी की १९७७ में सरकार आने के बाद पी. जगमोहन रेड्डी आयोग गठित किया गया, पर वह भी कोई ठोस निष्कर्षों पर नहीं पहुंच सका था। पुस्तक के `बैंक ही बैंक’ अध्याय में विस्तार से जानकारी दी गई है कि कनॉट प्लेस तथा इससे मिलने वाले संसद मार्ग में करीब दो सौ बैंक तथा एटीएम हैं। आज जहां कनॉट प्लेस और संसद मार्ग है, वहां एक सदी पहले कुछ गांव हुआ करते थे। माधोगंज, जयसिंगपुरा और राजा का बाजार। इलाके में न पक्के मकान थे न दुकानें। तब मोटरगाड़ियों की बजाय तांगे और बैलगाड़ियां चला करती थीं। कनॉट प्लेस बनाने से पहले इन गांवों के निवासियों को करोलबाग के पास बसाया गया। तब कनॉट प्लेस और पास के इलाकों में घने पेड़-पौधे थे और यहां हिरण, जंगली सूअर वगैरह घूमते रहते थे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक मामलों के जानकार हैं।)

अन्य समाचार