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ब्रजभाषा व्यंग्य : रोट राजधानी के

नवीन सी. चतुर्वेदी
घुटरूमल जी बन ठन कें मुम्बई जायवे कों निकसे। विज्ञापन हुतो रसोइया कौ। ये तौ रसोई एक्सपर्ट, एप्लाई कर दियौ। एप्लीकेसन में पूछी आप कितने प्रकार की चटनी बनाय सकौ? इननें लिखी, अजी धनिया क्या हम तो बड़े-बड़ों की चटनी बना चुके हैं। विन नें या कौ कहा मतलब समुझ्यौ यै तौ वे ही जानें, इंटरव्यू कौ बुलावौ आय गयौ। घुटरूमल जी नें ब्यारू के काजें गोल गोल पतरे पतरे सुद्ध घी सों चिपरे भए फुल्का और सतगड्डे कौ साग बनवायौ और हजरत निजामुद्दीन सों राजधानी एक्सप्रेस पकर लीनी।
ट्रेन सौ ते ऊपर की स्पीड पै दौरिवे लगी। मथुरा कब आयौ पतौ ही न चलौ। मथुरा आयौ तौ भिर्र की भिर्र चढ़ आयी। कौन कौन कौ खयाल करै। सबरे एक दूसरे पै चढ़ते भए, लगेज ठेलत भए घुसे नाँय ठुसे। जैसें चुनाव बाद सब कुछ नॉर्मल है जावै, थोरी देर में ही अपनी अपनी सीट’न पै बैठते ही हो हल्ला बंद, सब एक दूसरे सों ऐसें बतियाम’न लगे जैसें नेता संसद में जूतम पैजार के बाद पारटी’न में एन्जॉय करते दीखें।
घुटरूमल जी की भूख बढ़न लगी। सोची चलौ ब्यारू कर लेंय। खायवे कौ थैला ढूँढ़वे उठे मगर यै का थैला तौ हुतो ई नाँय। शायद स्टेशन की सीट पै भूल मरे। कोऊ बात नाँय फौरन कैंटीन वारे सों पूछी कि लाला रे खाने में क्या मिलैगौ? वौ बोल्यौ पनीर की सब्जी, दाल  फ्राई और फुल्के। इन नें सोची चलौ अपने मतलब कौ खानों है चट्ट सों ऑर्डर दै दियौ और पट्ट सों वौ लै हु आयौ।
भूख सों बेहाल घुटरूमल जी नें फटाफट पन्नी उतारी, पैकेट खोले और, और कहा माथौ ठनक गयौ विन कौ। पनीर की सब्जी ऐसी लग रई जैसें पानी में केसरिया रंग घोर कें कछू पनीर के टुकड़ा डार दिये होंय। दाल प्रâाई ऐसी जैसें पीरे रंग के सूप में उबली भई दार के कछू दाने डार दिये होंय और फुल्का, फुल्का तौ फुल्का’न के नाम पै कलंक। रोटी नाँय जी मौटे मौटे कच्चे कच्चे रोट। का करते? भूख में किवार पापर। खानों परौ साब। जैसें ई खाय कें निवृत्त भये काऊ मित्र कौ फोन आयौ, पूछी- बैठ गये? ये बोले आज के थोरें ही, इंडियन रेलवे और हम तौ कब के बैठ चुके हैं! मित्र इनकौ सुभाउ जानतो सो इग्नोर कर कें फिर पूछ्यौ खाय लियौ? ये बोले निगल लऔ। अब वा नें अंतिम प्रश्न कियौ का खायौ? ये बोले दो सौ रुपैया दै कें रेल में जेल वारे रोट खाये हैं। हम संसद सदस्य थोरें ही हैं जो सौ रुपैया में चिकन बिरयानी मिल जायगी।

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