राजेश विक्रांत
आम धारणा है कि सरकारी कर्मचारी बड़े मजे में काम करता है। बात सही भी है इसलिए मैं एक सरकारी काम का विवरण दे रहा हूं, जो कि सरकारी कर्मचारियों के मजे व सुख का रोजनामचा है। हम ६ लोग सेंटर प्रमुख मुदित, प्रथम अधिकारी रंजीता, अधिकारी अभिनव, सेवा संपादक सुनील, सुरक्षा अधिकारी विद्याधर व खाकसार रविवार की सुबह ८ बजे दफ्तर में मिले। हमारा स्वागत चाय, बिस्किट व उपमा से किया गया। हमने सामग्री ली, उसे धारण कर ११ बजे दफ्तर से निकले। हमें बस से सेंटर तक जाना था। रास्ते में कई एसी बसें दिखी तो हम खुश हो गए, लेकिन हम जिस बस में सवार हुए उसकी तपती सीटों ने हमारे बैक स्टेज को हॉट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। हम १२ बजे सेंटर पहुंचे।
हमारा सेंटर जिस गली में था, उस गली का नाम एक महापुरुष चिमना बूचर यानी कसाई के नाम पर था। पीछे की गली मटन स्ट्रीट थी। सिर्फ ४० मीटर दूर मुंबई के उस प्रसिद्ध इलाके की सीमा शुरू होती थी, जिसे आम भाषा में चोर बाजार कहते हैं। मेन रोड से सेंटर तक की १०० मीटर की सड़क मुंबई की असली तस्वीर पेश करती थी। सड़क पुरातत्वात्मा थी, मतलब गड्ढे नुमा, ऊबड़-खाबड़, खुदाई से चूर।
सेंटर को देखकर आनंद की झीनी-झीनी अनुभूति हुई। मूलभूत सुविधाओं ने स्थायी रूप से असहयोग आंदोलन छेड़ा हुआ था। साफ-सफाई, पानी, पंखा, कूलर रूपी समस्याओं के एवरेस्ट को देखकर हम सभी डीसी करंट की भांति उछल पड़े। सूर्य भगवान की कृपा बाहर यदि ४० डिग्री थी तो सेंटर के अंदर ५० डिग्री थी, इसका पूरा श्रेय पतरे की छत व खिड़कीविहीन कमरे को जाता था। खैर, तमाम व्यस्तताओं के बावजूद देश सेवा के लिए समय निकालने की आदिकालीन आदत से मजबूर हम सेंटर में अपनी दुकान सजाने में विक्रमादित्य के बेताल की भांति शुरू हो गए।
प्रचंड गर्मी के मद्देनजर हमने अपने अफसर आरएम से कूलर की दरख्वास्त की। आरएम गौतम गंभीर के सिर्फ नाम को सार्थक करते थे। वे आर्यसमाज के ईश्वर की तरह अनादि, अंनत, अनश्वर, निर्विकार प्राणी थे। आबनूस से प्यार करने वाले। गांधी जी के तीनों बंदरों की आत्मा उनमें व्याप्त थी। वे दोनों कानों का खूब सदुपयोग करते थे। हमारी मांग सुनते ही वे अनुभवी अपराधियों की तरह भूमिगत हो गए। बाद में बीच-बीच में कंजूस के मनी ऑर्डर की तरह दर्शन देते रहे। हम जब-जब भी मदद के लिए विरही यक्ष की भांति विलाप करते, तब-तब वे बूढ़े जेबकतरे की तरह खिसकते रहे।
तब हमने सोच लिया कि हमें आत्मनिर्भरता के परम सिद्धांत का पालन करना है। लिहाजा, रात में आरएम की कृपा से मिला फर्राटा हमें एसी लगता रहा। हमारे बदन से पसीने की धार नियाग्रा जलप्रपात की तरह बहती रही। सुबह ५ बजे नहाने के समय देखा कि इकलौता नल खून के आंसू रो रहा था। दूसरा नल पानी को सरकारी राशन की तरह दे रहा था। हमारी टीम के न्यूटन व एडिसन रूपी वैज्ञानिकों ने अपनी मौलिक सोच का जनरेटर चलाकर बोतल को काट कर ग्लास बनाया।
रंजीता जी की कृपा से सुबह चाय व बिस्कुट मिला, फिर हम कर्तव्यपथ पर डट गए। मुफ्त में राशन जैसी लंबी लाइन में आवेदक आते गए। हर तरह के लोगों से साबका पड़ा। गालीमुखी बुजुर्ग, शरीफ, अमीर, गरीब। तीन परियों के बराबर कन्याएं। रेल के इंजन की भांति मीलों आवाज फेंकने वाले नागरिक। ह्वील चेयर सवार दिव्यांग। आभूषणों की दुकान बनी लकदक नारियां, डनलप मार्का महिलाएं। कब्र की बजाय सेंटर पहुंचे वरिष्ठ। हमने सबको समान भाव से निपटाया। आरएम के सौजन्य से नाश्ता व भोजन से दूर ही रहे हम। बदले में मुदित की जेब शूली पर चढ़ती रही। आखिरकार, वे टीम लीडर थे, भगीरथ प्रयत्न करना व बालू से तेल निकालने का काम उनके जिम्मे ही था।
आरएम सेंटर पर जब भी प्रकट हुए, तब हमारा मन उन्हें घटनास्थल पर ही पंचतत्व को प्राप्त कराने का होता था। लोहा लोहे को काटता है, के पथ पर चलते हुए उन्होंने हमें गर्म पानी भी मुहैया कराया था। दिनभर में २ चाय, ३ बजे २ थेपला के लिए उनका आभार। रात ९ बजे पैकिंग के बाद जब हम बाहर निकले तो गर्व ये हुआ कि पुलिस व सीआरपीएफ के ५० हथियारबंद जवान हमारी सुरक्षा में थे। सरकारी सामानों की सबमिटिंग के बाद आरएम ने हमें भत्ता इस भाव में सौंपा, मानो वे कामचोरों को १० हजार डॉलर का इनाम दे रहे हों। रात १२ बजे हम सबके चेहरे पर वो मुस्कान उभरी, जो सही तरीके से सरकारी ड्यूटी बजा लाने पर हर सरकारी कर्मचारी कर्मचारी के चेहरे पर उभरती है। बिना खर्च हुए हम घर रवाना हुए, उस समय अगर आरएम हमें मिलते तो ऐसी कोई घटना जरूर होती, जिसका जिक्र आईपीसी में मिलता। जय हिंद।
(लेखक तीन दशक से पत्रिकारिता में सक्रिय हैं और १६ पुस्तकों का लेखन-संपादन कर चुके वरिष्ठ व्यंग्यकार हैं।)