राजेश विक्रांत
(लेखक तीन दशक से पत्रिकारिता में सक्रिय हैं और ११ पुस्तकों का लेखन-संपादन कर चुके वरिष्ठ व्यंग्यकार हैं।)
माले मुफ्त दिले बेरहम की राजनीति करने वालों जरा महान अर्थशास्त्री चाणक्य की भी सुन लो! जिन्होंने कहा था कि इंसान उसी चीज को महत्व देता है, जिसका उसे मूल्य चुकाना पड़ता है। तब भी तुम्हारा मुफ्त का टोकरा भरा हुआ है। उसे आप जनता को देने पर आमादा हो। खुले हाथ से बांटना चाहते हो आप। जनता उसकी कीमत समझे या नहीं, आप तो जनता को दोगे ही।
छी छी… अब इस मुफ्तखोरी में आपने भगवान राम को घसीट लिया है। कभी सोचा भी नहीं कि अगर भगवान तुम्हारी इस हरकत का बुरा मान जाएं तो! मुफ्त बिजली, पानी, खाद, बीज, रसोई गैस, साड़ी, प्रेशर कुकर, टीवी, वाशिंग मशीन, लैपटॉप, कंप्यूटर, चावल, आटा, स्कूटी, मोबाइल, यातायात की सुविधा तक तो ठीक है, पर अब इस मुफ्त के जंजाल में भगवान श्रीराम भी आ गए हैं। फलां राज्य में सरकार बनी तो महिलाओं व बुजुर्गों को मुफ्त में रामदर्शन कराएंगे।
यह एकदम सही है कि बिना जरूरत की सब्सिडी या मुफ्त में कोई चीज देना लोगों को आलसी और कामचोर बनाना है। उनमें काम करने के प्रति लगन कम हो जाती है। वे आलसी और कामचोर हो जाते हैं।
दक्षिण हिंदुस्थान की राजनीति में मुफ्त चावल से शुरू हुए मुफ्त की राजनीति का अब विस्तार हो गया है। वहां पर चुनाव जीतने के लिए कमोबेश यह पैटर्न सभी राजनीतिक दलों में आम है। भले ही मुफ्त वस्तुएं या सुविधाएं उपलब्ध कराने का वादा लोकतंत्र की मूल भावना के प्रतिकूल है तो रहे। सब बांट रहे हैं तो हम भी बांटेंगे। हम क्यों पीछे रहें? हम किसी से कम नहीं! हम तो सरकार हैं। हमें कौन रोक सकता है? हम तो ८० करोड़ गरीबों को मुफ्त राशन का वादा कर चुके हैं तो हम मुफ्त स्कूटी और मुफ्त रामदर्शन का भी वादा कर सकते हैं!
सालों से मुफ्त सुविधाएं देने की घोषणाएं चुनाव जीतने का हथकंडा रही हैं। चुनावी मौसम में सभी राजनीतिक दल अपने वादों से मतदाताओं को लुभाने की हर संभव कोशिश करते हैं, जिसमें मुफ्त सुविधाएं जैसे बिजली, पानी आदि देने की घोषणाएं भी शामिल हैं। मजे की बात है कि सभी दल सरकार के खर्चे पर ये मुफ्तखोरी करवाते हैं। कोई दल अपनी पार्टी के फंड से जनता को कुछ भी मुफ्त देने की बात सोच भी नहीं सकता है। इस मुफ्तखोरी को सभी राजनीतिक दल `जनकल्याण’ कहते हैं। एक तो चोरी ऊपर से सीनाजोरी।
चुनाव के दौरान राजनीतिक दल, मतदाताओं को अपने पक्ष में करने के लिए इस तरह का `जनकल्याण’ घोषित कर एक-दूसरे से आगे निकलने की कोशिश करते हैं। लेकिन इस `जनकल्याण’ की कोई स्पष्ट परिभाषा तो है नहीं, लिहाजा जिस दल के जो मन में आता है, वह उसी प्रकार के `जनकल्याण’ की घोषणा कर देता है। पूरा हो या न हो। संभव हो असंभव। कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन जनता उनके वादों में फंस ही जाती है। बाद में सरकार द्वारा ऐसे असंभव वादों को या तो आधे-अधूरे ढंग से पूरा किया जाता है या देर से अथवा उनके लिए धन का इंतजाम जनता के पैसों से ही किया जाता है। यानी मियां की जूती, मियां के सिर। ये खेल जनता को समझ में आता भी नहीं। मसलन एक राज्य सरकार ने दो सौ यूनिट बिजली मुफ्त देने के वादे को पूरा करने के लिए बिजली महंगी कर दी। इसी तरह एक अन्य राज्य की सरकार ने पेट्रोल और डीजल पर वैट बढ़ा दिया। तो अब बड़े सरकार भी मुफ्तखोरी को प्रोत्साहन दे रहे हैं। वे मुफ्त में राममंदिर के दर्शन कराएंगे। सरकार को ये पता है कि चुनाव जीतने के लिए वित्तीय स्थिति की अनदेखी कर लोकलुभावन वादे करना अर्थव्यवस्था के साथ खुला खिलवाड़ है। पर सरकार, सरकार हैं। बड़े सरकार हैं। सरकारों के सरकार हैं। वे मानेंगे नहीं। श्री राम कुपित हो जाएं तो भी नहीं मानेंगे। क्योंकि सरकार ने भी अब मुफ्तखोरी का पैâसला कर लिया है।