राजेश विक्रांत
साहेबान, मेहरबान, कदरदान, लीजिए सरकार ने एक और शगूफा छोड़ दिया है- वन नेशन, वन इलेक्शन का। शगूफे छोड़ना सरकार की आदत है। जब सरकार बोर होने लगती है तो वह अपनी मौलिक सोच का जेनरेटर चलाकर कोई न कोई शगूफा छोड़ देती है, जिसको झेलना है झेले, सरकार तो विदेश दौरे पर निकल जाती है- जन धन, मेक इन इंडिया, विकसित भारत, वंदे भारत, राम मंदिर, आरक्षण, अबकी बार ४०० पार, वक्फ के बाद अब सरकार ने अपने पिटारे से वन नेशन, वन इलेक्शन निकाल लिया है।
जब आप किसी सर्कस का टिकट खरीदते हैं तो आपको कुछ जोकर दिखने की उम्मीद रहती है ही। आप सरकार लाए हैं तो इसके नखरे दूसरा कोई थोड़े ही झेलेगा? आपको ही झेलना है। झेलिए आप वन नेशन, वन इलेक्शन।
सरकार बड़ी होशियार है। जैसे ही जनता मंहगाई, गरीबी, बेरोजगारी की ओर सोचने लगती है, सरकार फौरन उसका दिमाग डाइवर्ट कर देती है। इसलिए वन नेशन, वन इलेक्शन का मूल ध्येय जनता को उलझाना है। उसे एक विषय दे देना है चर्चा के लिए। वन नेशन, वन इलेक्शन पर बहस करते हुए हमारे देश की भोली-भाली जनता कई बातें भूल जाएगी कि पंचायत में महिला को बाल पकड़कर घसीटा गया। मेडिकल कॉलेज के बाथरूम में महिला की लाश मिली है। ९वीं की छात्रा को गोली से उड़ाया गया। भेड़िए, सियार व आवारा पशुओं का आतंक बढ़ गया। कुत्तों के झुंड ने मासूम को मार डाला, बाढ़ में राष्ट्रीय राजमार्ग बह गया। सरकारी अस्पताल में मरीज से दुर्व्यवहार हुआ। गरीब आदमी को अपना हक पाने के लिए रिश्वत देनी पड़ी। बेसहारा के आशियाने पर बुलडोजर चल गया। इसकी बजाय अब बात होगी वन नेशन, वन इलेक्शन पर।
वन नेशन, वन इलेक्शन कराएगा कौन? चुनाव आयोग? वैâसे कराएगा? उसके पास अपने सिर्फ ३०० कर्मचारी ही हैं। इसलिए वन नेशन, वन इलेक्शन चुनाव आयोग के लिए नए-नए विवाद की खेती के समान हो जाएगा।
सरकार को शुरुआती दौर में मैनेजमेंट से लेकर मैनपावर की कमी से जूझना पड़ सकता है। बजट का एक बड़ा हिस्सा भी एक साथ खर्च करना होगा। लाखों की संख्या में ईवीएम और पेपर ट्रेलर मशीनें खरीदनी होंगी और इनके स्टोरेज के लिए जगह बनानी होगी, इनकी सुरक्षा के इंतजाम करने होंगे। इसमें हजारों करोड़ का अतिरिक्त खर्चा बढ़ेगा। पोलिंग बूथ की संख्या भी बढ़ जाएगी।
दरअसल, ईवीएम का जीवन काल १५ वर्ष का होता है। एक चुनाव कराने पर इनका इस्तेमाल तीन या चार बार ही हो सकेगा। उसके बाद फिर नई ईवीएम खरीदनी होंगी। सरकार ये सब नहीं सोच रही है। ये सब सोचने का समय नहीं है सरकार के पास। सरकार को तो क्षेत्रीय पार्टियों को खत्म करना है।
(लेखक तीन दशक से पत्रिकारिता में सक्रिय हैं और ११ पुस्तकों का लेखन-संपादन कर चुके वरिष्ठ व्यंग्यकार हैं।)