एम. एम. सिंह
लोकसभा के बाद उपचुनावों के नतीजों को विपक्ष, इंडिया गठबंधन के पक्ष में राष्ट्रीय मूड स्विंग के संकेतक के रूप में देखा जा सकता है और एक बार फिर भाजपा के लिए खतरे की घंटी के तौर पर। सात राज्यों की १३ विधानसभा सीटों में से १० पर विपक्ष और इंडिया गठबंधन गुट के विधायकों ने जीत हासिल की है। जहां एक ओर कांग्रेस को हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में दो-दो सीटों पर जीत हासिल हुई, पश्चिम बंगाल की सभी चार सीटों पर तृणमूल कांग्रेस ने जीत हासिल की, जबकि द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) और आम आदमी पार्टी (आप) ने क्रमश: तमिलनाडु और पंजाब में एक-एक सीट जीती। वहीं सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले इंडियन नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस (एनडीए) को केवल दो सीट जीतने में सफलता मिली, मध्य प्रदेश और हिमाचल प्रदेश में एक-एक। बिहार की एकमात्र सीट एक निर्दलीय उम्मीदवार ने जीती।
लोकसभा चुनाव में बीजेपी २४० सीटों पर सिमट गई और एनडीए २९३ सीटों पर दोनों ही सीटों का आंकड़ा २०१९ के लोकसभा नतीजों से कम है। लोकसभा चुनाव में १३ विधानसभा क्षेत्रों में से ११ में लगभग ५० प्रतिशत वोट जो महज २ महीने से भी कम समय में उपचुनावों में गिरकर ३५ प्रतिशत से नीचे आ गया है। जिन दो विधानसभा सीटों पर भाजपा ने उपचुनाव जीते-हिमाचल प्रदेश में हमीरपुर और मध्य प्रदेश में अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीट अमरवाड़ा वहां लोकसभा चुनाव की तुलना में उसके वोट शेयर में क्रमश: १२.५ और ३.१ प्रतिशत अंक की गिरावट आई है।
चलिए भाजपा का यह तर्क मान लिया जाए कि लोकसभा चुनाव के कुछ हफ्तों के भीतर पश्चिम बंगाल की चार उपचुनाव सीटों पर वोट शेयर में औसतन २० अंक से अधिक की गिरावट की वजह टीएमसी की हरकतें रही हैं, लेकिन भाजपा के वोट में औसत २० फीसदी अंक की गिरावट के लिए भाजपा के पास क्या तर्क है? कांग्रेस ने जिन सात उपचुनाव सीटों पर चुनाव लड़ा है, उनमें से पांच पर अपना वोट शेयर बढ़ाया और ऐसा ही प्रदर्शन `आप’, डीएमके और राजद जैसी इंडिया गठबंधन की सहयोगी पार्टियों ने भी किया। लेकिन भाजपा के एनडीए सहयोगी दलों का प्रदर्शन भी अच्छा नहीं रहा। बिहार के रूपौली में जनता दल (यूनाइटेड) के वोट शेयर में गिरावट देखी गई, जबकि उपचुनाव मैदान में अन्नाद्रमुक की अनुपस्थिति के बावजूद पट्टाली मक्कल काची (पीएमके) की स्थिति में सुधार काफी कम हुआ और तमिलनाडु के विक्रवंडी में डीएमके के वोट शेयर में बढ़ोतरी कम ही दर्ज की गई।
लब्बोलुआब, इस उपचुनाव में लोकसभा चुनाव की तुलना में विपक्षी इंडिया गठबंधन की पार्टियों को फायदा हुआ है, जबकि बीजेपी और एनडीए का समर्थन कम हुआ है, जो लोकप्रियता के मूड में बदलाव की दिशा स्पष्ट करता है। देखा जाए तो मोदी की भाजपा का राजनीतिक अहंकार, लगातार उत्पीड़न और अपमान की नीति के अलावा संसदीय विरोध, मानवाधिकारों का मनमाना उल्लंघन, फिजूल आर्थिक उपलब्धियों की आडंबरपूर्ण अतिशयोक्ति, बढ़ती आर्थिक कठिनाई व असमानताओं का भ्रामक खंडन और चालाकीपूर्ण सामाजिक पुनर्रचना की कूटनीति (जिसके चलते सामाजिक न्याय और एकजुटता कमजोर करने की कोशिश की गई), मोदी शासन की पहचान बन गई है, जिसे अब लोग समझने लगे हैं। दो महीने से भी कम समय में भाजपा के चुनावी समर्थन में इतनी बड़ी गिरावट की वजह को समझने के लिए `नॉन बायोलॉजिकल’ नरेंद्र मोदी जी को बेशक आत्मनिरीक्षण करने की जरूरत है न कि अहंकारी लफ्फाजी की। उनकी `मैं’ वाली भूमिका के चलते भाजपा को ६३ सीटों का नुकसान झेलना पड़ा। यही वजह है कि भाजपा की मातृ संस्था आरएसएस भी उन्हें उनकी `जगह’ दिखाने के लिए कमर कसकर बैठी है! कहावत है कि बाहरी लोगों की नाराजगी मोल लेकर इंसान शायद जी भी ले, लेकिन परिवार को नाराज कर जीना दूभर हो जाता है और मोदी ने दोनों ही लोगों से नाराजगी मोल ले ली है! एंटी इनकंबेंसी की शुरुआत कुछ इसी तरह होती है!