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भाजपा के लिए मधुर नहीं है कर्नाटक संगीत! …स्थानीय नेता कमजोर हैं तो मोदी नहीं दिला सकते जीत

डाॅ. सुषमा गजापुरे
कर्नाटक चुनाव में हुई करारी हार से भारतीय जनता पार्टी के लिए कई महत्वपूर्ण संकेत निकल रहे हैं। पहला बड़ा संकेत यह है कि भाजपा अब मात्र एक आदमी की तथाकथित जादू की छड़ी और बहुसंख्यकवाद पर निर्भर नहीं रह सकती। प्रत्येक चुनाव में केवल एक व्यक्ति का ‘चेहरा’ हमेशा जादू का काम नहीं कर सकता, यह एक ऐसा सत्य है, जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता है। हर गुजरते राज्य के चुनाव से यह साफ संकेत निकल रहे हैं कि मोदीजी को जो प्राप्ति (रिटर्न) मतदाता से मिल रही है उनमें एक बड़ी गिरावट आ रही है। जनता की नई चेतना या आंखों से पर्दे हटने के कारण कहीं-न-कहीं मोदीजी का रथ अब अपनी रफ्तार से चूक रहा है। जिन-जिन प्रदेशों में भाजपा का स्थानीय प्रशासन या स्थानीय नेतृत्व कमजोर हुआ है, वहां-वहां पर मोदीजी अपना जादू चलाने में विफल रहे हैं। यदि हम आंकड़ों पर गौर करें तो भाजपा को मई २०१४ से अब तक लड़े गए राज्यों के ५७ चुनावों में से आधे से अधिक चुनावों में हार का सामना करना पड़ा है।
पहला सबक भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के लिए तो यह होगा कि अगर वह अपनी छवि को ठीक करना चाहती है तो उसे राज्यों में एक मजबूत नेतृत्व को प्रोत्साहित करना होगा। नरेंद्र मोदी किसी भी राज्य में बड़ी जीत तभी दिला सकते हैं, जब उनके पास भरोसेमंद राज्य स्तर का नेतृत्व हो। उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ, असम में हिमंत बिस्वा सरमा और मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान, अब बस यही कुछ नाम बचे हैं, जो राज्यों में थोड़ा-बहुत प्रभाव रखते हैं। बाकी राज्यों में भाजपा का राज्य नेतृत्व इतना लचर और कमजोर है कि वो मोदी नाम की बैसाखी के बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता।
कर्नाटक चुनाव एक और महत्वपूर्ण संकेत लेकर आया है, जैसे भाजपा का अल्पसंख्यकों को लगातार हाशिये पर धकेलना, बहुसंख्यक सांप्रदायिकता को हवा देना तथा राज्यों और निकायों के चुनावों में राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के बारे में जोर-शोर से बात करना अब काम नहीं कर रहा है। जैसे हर मुद्दे की एक आयु होती है, वैसे ही हिंदुत्व का मुद्दा एक-दो राज्यों को छोड़कर बाकी राज्यों में अब भाजपा के लिए गले की फांस बनता जा रहा है। तटीय कर्नाटक में भाजपा की शक्ति का बड़ा क्षरण इसी दिशा में संकेत दे रहा है। दूसरी ओर भाजपा नेतृत्व किसी भी राज्य में उनके स्थानीय मुद्दों पर बात ही नहीं करते हैं। भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी, चिकित्सा, ओल्ड पेंशन स्कीम, महिलाओं और बच्चों की समस्याएं और अन्य राज्य स्तर के मुद्दों के बारे में भाजपा नेता जनता के साथ संवाद में कहीं भी चर्चा नहीं कर रहे। जनता इनके इस रवैये से न हिमाचल के चुनाव में खुश नजर आयी और न ही कर्नाटक में। इसके लिए भाजपा को जल्दी ही एक कोर्स करेक्शन की बहुत जरूरत है।
ग्रामीण अंचल में भाजपा ५५ सीट से लुढ़क कर २५ पर आ गई है, यह एक बहुत बड़ी गिरावट या क्षरण है। भाजपा को समझना होगा कि प्रत्येक चुनाव में केवल मोदीजी के चेहरे पर जीत नहीं दर्ज की जा सकती। स्थानीय नेतृत्व अगर भ्रष्ट और अक्षम है तो आखिर मोदी जी भी भला क्या करेंगे।
अब महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या कर्नाटक के नतीजों का २०२४ के आम चुनावों पर कोई असर पड़ेगा? स्पष्ट रूप से अभी इसका उत्तर नहीं दिया जा सकता है। इसके लिए हमें २०१९ और २०२४ के परिदृश्य को अलग करके देखना होगा। भाजपा केवल इस बात पर राहत नहीं महसूस कर सकती कि मोदी के सामने कोई भी विपक्ष का शक्तिशाली चेहरा नहीं है। आनेवाला २०२४ का चुनाव मोदी वर्सेस मुद्दों पर लड़े जाएंगे। भाजपा नेतृत्व को इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि लोकसभा चुनावों में मोदीजी के नाम पर १०-१५ प्रतिशत वोट विधानसभा चुनावों की अपेक्षा अधिक मिलते हैं इसलिए वो २०२४ का रण आसानी से जीत जाएंगे। राजनीति में किसी भी परिणाम को निश्चित मानना सभी दलों के लिए नुकसानदायक हो सकता है। अच्छा होगा कि अभी हम समय की प्रतीक्षा करें और किसी भी तरह की पूर्वभासित राजनैतिक भविष्वाणी से बचें।

कांग्रेस का मनोबल बढ़ानेवाले
कर्नाटक के परिणाम कांग्रेस के लिए निश्चित रूप से मनोबल बढ़ाने वाले हैं। कांग्रेस ने सभी समुदायों में अपनी विश्वसनीयता को बढ़ाया है। इतना ही नहीं, कर्नाटक और हिमाचल में मिली बड़ी विजय ने इस धारणा को मजबूत किया है कि अगर राजनैतिक दल स्थानीय मुद्दों को नहीं उठाएंगे और उनके लिए हल नहीं सुझाएंगे तो फिर उन्हें जनता का आशीर्वाद मिलना बहुत मुश्किल है। इस क्रम में कांग्रेस जनता के मुद्दों को उठाने में सफल होती नजर आ रही है।

शहरी क्षेत्रों में भी घटी लोकप्रियता
कर्नाटक चुनावों के आंकड़ों पर यदि हम एक नजर डालें तो ज्ञात होगा कि भाजपा का वोट प्रतिशत भले ही ३६ प्रतिशत पर टिका हुआ है, पर उसकी सीट ३८ कम हो गई हैं। इसी में कुछ भेद भी छुपे हैं। जहां बंगलुरु में भाजपा अपना वोट थोड़ा-सा ही बढ़ा पाई, वहीं उसका वोट प्रतिशत, मुंबई कर्नाटक, हैदराबाद कर्नाटक, मध्य कर्नाटक, ओल्ड मैसूर और तटीय कर्नाटक में अत्यधिक कम हुआ है। लगभग ४८ चुनाव क्षेत्रों में भाजपा तीसरे-चौथे स्थान पर आई है, यह अत्यधिक आश्चर्यजनक बात है। शहरी क्षेत्रों में भाजपा के पास ५७ सीट थी, जो अब घटकर ५० रह गई है।

उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ, असम में हिमंत बिस्वा सरमा और मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान, अब बस यही कुछ नाम बचे हैं, जो राज्यों में थोड़ा-बहुत प्रभाव रखते हैं। बाकी राज्यों में भाजपा का राज्य नेतृत्व इतना लचर और कमजोर है कि वो मोदी नाम की बैसाखी के बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता।’

(स्तंभ लेखक वैज्ञानिक, आर्थिक और
समसामयिक विषयों पर चिंतक और विचारक हैं)

 

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