जब से घर का साथ छूट गया
तन्हाइयों में पलता गया
आवारा इधर-उधर फिरता रहा
किसी की गाली सुनूं
कहीं धक्के खाऊं
परायेपन में अपनापन खोता गया
बेसहर-बेखबर चलता गया
जिंदगी की राह में अकेला पड़ता गया
जख्म इतना गहरा हुआ
मेरी आवाज किसी को सुनाई न पड़े
बेरहम ये समाज होता गया
कोई पुकारता है मुझे दूर से कहीं
आ जा तेरी मजिल है यहीं
जब मैं पास जाऊं-देखूं
झूठी आस किसी ने दिलाई
उसने भी मेरी खिल्ली उड़ाई
किस पर यकीन करूं समझ नहीं आता
कोई भरोसे वाला नजर नहीं आता।
-अन्नपूर्णा कौल, नोएडा