अशोक पांडेय, लखनऊ
यूं तो मैं फिल्में नहीं देखता, देखता भी हूं तो भावपूर्ण दृश्यों पर मेरी आंखें झरने लगती हैं। हृदय करुणा से भर जाता है। लेकिन `द केरला स्टोरी’ दर्दनाक भावुक कर देनेवाले दृश्यों से भरी पड़ी है, किंतु एक बार भी मेरी आंखों में आंसू नहीं आए। तब भी नहीं जब इस्लामी चंगुल में जाती उस सनातनी लड़की ने आईसीयू में भर्ती अपने बाप के चेहरे पर मां के सामने घृणा से भरकर थूका। मरते हुए बाप, बिलखती हुई मां को कठोरता के साथ छोड़कर चली गई। नि:संकोच कहूंगा कि हमारा सनातनी समाज पूर्णरूपेण निरंकुश हो चुका है। जातियों में खंड-खंड होकर विखंडित हो चुका है। अपनी सामूहिक सामाजिक आस्था और भगवानों को बांट चुका है। एक-दूसरे के प्रति विद्वेष में भरकर अपनी महत्वपूर्ण मान्यताएं, परंपराएं और संस्कारों को छोड़ दूर भागता जा रहा है। स्वयं उसका उपहास उड़ा रहा है। सनातन गौरव की बात करो तो दूसरा सनातनी तुरंत विरोध में सामने आ जाता है। कुल मिलाकर हमारा समाज आत्महंता बन चुका है।
हमारे समाज में अभिभावक न ही स्वयं अपने महान गौरवपूर्ण संस्कारों से जुड़ते हैं न ही अपने बच्चों को इनसे अवगत कराते हैं। हम आधुनिक बनना चाहते हैं। हम अमेरिका और इंग्लैंड की नकल करना चाहते हैं और यह भूल जाते हैं कि वही अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस , दक्षिण अफ्रीका , रूस हमारी संस्कृतियों को खुशी-खुशी अपना रहे हैं। हरे रामा, हरे कृष्णा की मस्ती में डूब-उतरा रहे हैं। उनकी महिलाएं हमारी ५ मीटर की साड़ी में स्वयं को सौभाग्यशालिनी महसूस करती हैं। हमारा चंदन उनके मस्तक को शीतलता प्रदान करता है। उनकी संसद हमारे पौराणिक श्लोकों के वाचन से काम करना शुरू करती है। उनका राष्ट्रपति हमारे हनुमान जी की प्रतिमा को सश्रद्धा अपनी ऊपरी जेब में रख कर चलता है।
क्या मुस्लिम समाज की किसी महिला को आधुनिक अधनंगे कपड़ों में आपने देखा है? आप देखते नहीं कि उनकी एक साल की बच्ची भी शरीर के प्रत्येक अंग को बखूबी ढके हुए दिखती है। उस एक साल की बच्ची को क्या पता कि कपड़े कैसे पहने जाते हैं। उस बच्ची के भी केवल हाथ के पंजे और हिजाब से ढका हुआ चेहरा ही आप देख सकते हैं। इधर हम…? आधुनिक होने के नाम पर नंगापन ओढ़े दिखाई देते हैं।
हम अपनी बच्चियों को पढ़ने के लिए देश के एक कोने से दूसरे कोने में भेज देते हैं। वो भी किसी सामाजिक मर्यादा का ज्ञान दिए बिना और संस्कार सिखाए बिना। बाहर रहकर हमारी बिटिया क्या कर रही है, किसके साथ उसका उठना-बैठना है, क्या मतलब? समय पर विवाह नहीं, हमें तो पैसा चाहिए, ताकि हम शेखी बघार सकें कि हमारी तो बिटिया बीस लाख के पैकेज पर है। खैर…पतन की ओर जाते समाज को भी क्या समझाना, अन्यथा ये आधुनिक लोग पिछड़ा भी घोषित कर सकते हैं। अंत में बुरा न मानो। अपने संस्कारों की ओर लौटो। अपनी परंपराओं की ओर लौटो तो `द केरला स्टोरी’ और `कश्मीर फाइल्स’ जैसी फिल्में बनाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। बधाई `द केरला स्टोरी’ की पूरी टीम को, उसने सड़ते हुए घाव को नासूर बनने से पहले उसके इलाज का एक प्रयास तो किया।
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।)
(उपरोक्त आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं। अखबार इससे सहमत हो यह जरूरी नहीं है।)