रंग जीवन के अजब-गजब हैं,
स्वार्थ के वशीभूत इंसान ने
मनमर्जी से इनको नाम दिया!
कभी धार्मिक आधार पर,
तो कभी छद्म भावनाओं के कारण,
ना जाने कब भगवा हिंदू का
हरा इस्लाम का बना दिया!
श्वेत किसी अनाथ का बना चोला
तो लाल दुल्हन का लिबास बना,
काला बना शोक का प्रतीक
तो कहीं अबला का नकाब बना!
हरे से हुआ नवांकुर का एहसास तो
पतझड़ पीले का हो गया,
जातिवाद में नील वर्ण भी
अंतत: राजनीति का शिकार हुआ!
रंगों के नाम पर हुए प्रपंच अनेक
कि मानवता भी शर्मसार हुई,
गजब है दस्तूर दुनिया का
जो रंगों को ही दोषित किया!
युग युगांतर तक रहे ये बनते,
मानव कौम का मोहरे सदैव,
सब रंगों से परिपूर्ण है जीवन
मिल जाए तो बने इंद्रधनुष!
शोभायमान होती है प्रकृति
इन सबके मिलने भर से!
सुर संगीत का हो या
लय दिल की धड्कन,
रोम रोम में रंग व्याप्त हैं,
हरी नीली गर नसें शरीर की
तो लाल रक्त प्राणवायु है!
है जग में इंसान स्वार्थी,
रहता जो अक्सर छिपाए
अपना असली चेहरा हरपल,
भान्ति-भान्ति के आडम्बर से !
गिरगिट जैसा रंग बदलता
सोचकर बस यही सर्वदा,
कि ना जाने किस से कैसे
कब क्या काम पड़ जाए !
हर रंग की खुशबू है निराली,
हर रंग में प्रेम व्याप्त है,
रंगों का पावन पर्व है होली,
लिहाजा इक जैसे रंगे इंसान तो
नजर आ जाते हैं इस दिन..
भेद रंग का भूल जाते हैं इस दिन..
अमृत रस बरसाते है इस दिन..
प्रेम जीवन का रंग अटल है !
मिलकर रहने का रंग अमर है !!
-मुनीष भाटिया
मोहाली