डॉ. सीपी राय
दिसंबर में गुजरात और हिमाचल सहित विभिन्न प्रदेशों के चुनाव परिणाम आए, दिल्ली नगर निगम के नतीजे आए और कर्नाटक के परिणामों को भी देश ने देखा। ये चुनाव राजनीतिक समीक्षकों के लिए अध्ययन और पार्टियों के लिए आत्मचिंतन का विषय है। गुजरात में लगातार भाजपा जीती और पहले के रिकॉर्ड तोड़कर जीती। पर उसके लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह को दिल्ली छोड़कर दिन-रात एक करना पड़ा। किसी स्थानीय नेता की तरह रोज कई सभाएं करनी पडीं, अपने सम्मान का हवाला देना पड़ा, लंबे-लंबे रोड मार्च निकालने पड़े। महाराष्ट्र की योजनाओं को गुजरात ले जाकर उसका फायदा उठाया गया। ईवीएम मशीन तो हर हारे हुए चुनाव का मुद्दा है। जब भाजपा विपक्ष में थी, तब वो सवाल उठाती थी और उसके खिलाफ किताब तक लिख दी गई थी। सभी दल उस पर शंका खड़ी करते हैं, फिर भी एक सच तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि मोदी जी और शाह साहब ने अपने प्रदेश की जीत और हार को खुद से जोड़कर खुद को दांव पर लगा दिया। किसी स्थानीय नेता की तरह दिन-रात एंटी इनकंबेंसी के खिलाफ एक कर दिया। दूसरा खेमा `आप’ को मिले १३ प्रतिशत वोट और ओवैसी की भूमिका को रेखांकित करता है। एक तरफ कांग्रेस और इनके वोट जोड़ दिए जाएं तो दृश्य कुछ अलग होता। कांग्रेस बाजी पलट देती। जनता में ये भाव जगता कि कांग्रेस सरकार बनाएगी और फ्लोटिंग वोट उधर जाता, लेकिन सच ये भी तो है कि कांग्रेस आधे मन से लड़ती दिखी। हालांकि, कर्नाटक में कांग्रेस पूरे मन से लड़ी और मतदाताओं ने उसे जमकर वोट किया। गुजरात में भी कांग्रेस अगर इसी जोर से लड़ी होती तो नतीजे कुछ और हो सकते थे।
हिमाचल का तो अमेरिका की तरह इतिहास रहा है। सरकार बदलने पर गत चुनाव में मोदी का ये नारा `बदलाव के भाव को अब बदलें’ अगर केंद्र का लाभ लेना हो। दूसरी तरफ कांग्रेस ने यहां प्रियंका गांधी को उतार दिया, जिन्होंने उत्तर प्रदेश के अनुभव से सबक लेकर रणनीति बनाई और स्थानीय मुद्दों के साथ पेंशन को मुद्दा बनाकर एक बड़े वर्ग को अपने साथ जोड़ा। प्रियंका अपने कौशल से हिमाचल में चुनावी मशीन बन गर्ईं और भाजपा के कल-पुर्जे ढीले कर दिए। इधर दिल्ली के नगर निगम चुनाव में केजरीवाल की `आप’ पार्टी ने भाजपा को करारी शिकस्त दी। आप ने राष्ट्रीय पार्टी की मान्यता भी हासिल कर ली।
जहां नवीन पटनायक ने ओडिशा में अपना कब्जा बरकरार रखा, वहीं गहलोत और भूपेश बघेल ने भी असर बनाए रखा। कुल मिलाकर पिछले ६ महीनों के चुनाव सभी दलों और नेताओं को अपने-अपने सबक देकर गए हैं। भाजपा को सबक है कि राजनीतिक दल को दल ही रहने दें, इंसानों और कार्यकर्ताओं वाला दल, जिसके पास दिल भी हो। भावनाएं और सरोकार भी, वरना बहुत दिनों तक सिर्फ जुमलों, वादों और मीडिया की पीठ पर चढ़कर नहीं दौड़ा जा सकता है। अहंकार या बुरी भाषा और व्यक्तिगत आक्रामकता पार्टी को नुकसान पहुंचाती है। कुल मिलाकर परिश्रम, समर्पण, विनम्रता, जनता के लिए सहजता और स्वीकार्यता ही लोकतंत्र का हथियार है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार व राजनीतिक समीक्षक हैं)
(उपरोक्त आलेखों में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं। अखबार इससे सहमत हो यह जरूरी नहीं है।)