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कॉलम ३ : अतुल सुभाष की आत्महत्या…

नौशाबा परवीन

बंगलुरु के ३४ वर्षीय सॉफ्टवेयर इंजीनियर अतुल सुभाष आत्महत्या केस ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया है। खुदकुशी करने से पहले उन्होंने २४ पन्नों का एक विस्तृत आत्महत्या नोट, पुरुष अधिकारों की सुरक्षा के लिए संघर्ष कर रही एक एनजीओ को लिखा और लगभग ८४ मिनट का एक वीडियो भी बनाया। इन दोनों में ही उन्होंने न सिर्फ अपनी पत्नी व ससुराल के तीन अन्य व्यक्तियों पर कानून का दुरुपयोग करके उन्हें प्रताड़ित करने के गंभीर आरोप लगाए हैं, बल्कि जौनपुर की पैâमिली कोर्ट की न्यायाधीश रीता कौशिक पर भी भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए हैं। न्यायाधीश पर जहां रिश्वत मांगने के आरोप लगाए गए हैं, वहीं एक आरोप यह भी है कि जब अतुल ने अपनी स्थिति से तंग आकर खुदकुशी करने की बात कही और उनकी पत्नी ने उनसे कहा था कि वे भी आत्महत्या कर लें तो अतुल की पत्नी के इस बयान पर रीता कौशिक जोर-जोर से हंसने लगी थीं।
पुरुष भी पीड़ित
इन तमाम आरोपों की सच्चाई तो जांच के बाद ही सामने आ सकेगी, लेकिन अतुल की आत्महत्या ने अनेक बुनियादी सवाल खड़े कर दिए हैं। एक समूह के तौर पर महिलाएं तो पीड़ित होती ही हैं, लेकिन क्या व्यक्तिगत तौरपर पुरुष भी वैवाहिक संबंधों में पीड़ित हो सकते हैं? पितृसत्तात्मक समाज से क्या पुरुषों को परेशानी नहीं होती है? कानून का दुरुपयोग होता है, अदालतें भी अक्सर पक्षपात कर ही बैठती हैं, लेकिन क्या घरेलू हिंसा, यौन हिंसा, दहेज आदि से संबंधित कानून आवश्यकता से अधिक महिलाओं के पक्ष में नहीं हैं कि उनका दुरुपयोग पुरुषों व उनके परिवार के सदस्यों को प्रताड़ित करने के लिए भी किया जा सकता है? इस किस्म के अन्य अनेक सवाल हैं, जो इस खुदकुशी केस के कारण हॉट टॉपिक बन गए हैं। सोशल मीडिया पर अतुल के लिए जबरदस्त हमदर्दी उमड़ी है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता। लोगों ने अपनी-अपनी समझ के अनुसार पैâसले भी सुनाए हैं, जिनमें मुख्यत: इस बात पर बल दिया गया है कि राज्य और समाज महिला सुरक्षा के नाम पर कुछ ज्यादा ही आगे निकल गए हैं। घरेलू हिंसा, यौन उत्पीड़न व दहेज से संबंधित कानूनों को यातना के औजारों के रूप में देखा जा रहा है।
कुछ लोगों का तर्क यह भी है कि नीतियां अनुचित तौर पर महिलाओं के पक्ष में हैं, जो उन्हें इंसेंटिव देती हैं। मसलन, पब्लिक ट्रांसपोर्ट में आरक्षित सीट भी। अधिकतर लोगों का ख्याल है कि पुरुषों पर हमेशा झूठे आरोपों की तलवार लटकी रहती है। इन अंदेशों को सोशल मीडिया तो बढ़ा-चढ़ाकर पेश करता ही है, अक्सर पुलिस व अदालतों की कार्यवाही भी इन्हें बल प्रदान कर देती है। पीड़ित पुरुषों का नैरेटिव और प्रतिशोधात्मक फेमिनिज्म की बातें कुछ महिलाएं भी करती हैं, जो पितृसत्तात्मकता के पक्ष में रहती हैं, जबकि पितृसत्तात्मकता ही समाज में महिलाओं को दोयम दर्जे का नागरिक बनाती है। झूठे आरोप लगते हैं, यह कड़वा सच है। इससे इनकार करना बेवकूफी है। झूठे आरोपों से बदनामी होती है, इज्जत तार-तार हो जाती है, लिंग चाहे जो हो।
पुरुष संसार के मालिक!
सभी कानूनों को हथियार के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। लेकिन अगर व्यक्तिगत समस्याओं को थोड़ी देर के लिए अलग रख दिया जाए और केवल समूह पर गौर किया जाए तो पुरुष व महिला के पीड़ित होने में जमीन आसमान का अंतर है। बहुत बड़ी तादाद में महिलाएं ही पीड़ित हैं। हम ऐसे पुरुष प्रधान समाज में रहते हैं, जिसमें घरेलू व यौन हिंसा की पीड़ित महिलाओं की संख्या बहुत अधिक है। बलात्कार को मामूली अपराध समझा जाता है, जबकि बलात्कार का झूठा आरोप अक्सर अपवाद होता है, लेकिन हवाई हादसे की तरह प्रमुख सुर्खी बन जाता है।
हर सांसारिक संस्था पुरुष निर्मित है और पुरुष केंद्रित है। ईश्वर भी पुरुष ही हैं, शासक पुरुष हैं, उद्योगपति पुरुष हैं, अधिकतर न्यायाधीश पुरुष हैं और दफ्तरों के बॉस पुरुष हैं। सांसद पुरुष हैं, सदन में महिलाओं के लिए ३३ प्रतिशत सीट ही क्यों आरक्षित की गई हैं, ५० प्रतिशत क्यों नहीं और २०२९ से इस आरक्षण को लागू करने का क्या औचित्य है, अभी से क्यों नहीं? हर जगह, हर फिल्म में हर गीत में और बच्चों की कविताओं में, हमारी संस्कृति यह संदेश देती है कि पुरुष ही इस संसार के मालिक हैं। हमें सिखाया जाता है कि पुरुष चरित्रों के समक्ष महिलाएं आज्ञाकारी रहें। अच्छी महिलाएं आज्ञाकारी सेविकाएं होती हैं और संसार को पुरुषों की निगाह से देखती हैं। पितृसत्तात्मकता सख्त लिंग भूमिकाओं पर आधारित है और इसमें पुरुषों को भी संघर्ष करना पड़ता है, लेकिन महिलाओं से एकदम अलग अंदाज में। दशकों के फेमिनिज्म ने महिलाओं की महत्वाकांक्षाओं में इजाफा किया है। वह बराबरी चाहती हैं समाज में, वेतन में, अपने शरीर व जीवन पर अपना नियंत्रण चाहती हैं, सार्वजनिक संसार में अपना मकाम चाहती हैं।
पितृसत्ता हावी
लेकिन यह भी हकीकत है कि इस परिवर्तन के कारण लड़के व पुरुष भी संघर्ष करने के लिए मजबूर हुए हैं। जब समाज द्वारा निर्धारित जिम्मेदारियों से बेटियां व पत्नियां अलग हटती हैं तो पुरुषों को बुरा लगता है। लड़कियां जब स्कूलों में अच्छा प्रदर्शन करती हैं तो इसे प्राकृतिक व्यवस्था का उल्लंघन और व्यक्तिगत असफलता समझा जाता है। घर के संचालक के रूप में जब उनकी भूमिका पर सवाल उठाए जाते हैं तो पुरुषों का आत्मविश्वास डगमगा जाता है, जिसकी भरपाई वह अन्य भूमिकाओं में नहीं कर पाते हैं। सोशल मीडिया गुरुओं द्वारा परंपरागत पत्नियों और कुर्बानी देती मांओं का गुणगान करना लिंग समता प्रयासों के विरुद्ध मुहिम है। एक व्यक्ति के तौर पर हम सभी एक दूसरे को नुकसान पहुंचा सकते हैं। महिलाएं पुरुषों से बेहतर इंसान नहीं हैं। लेकिन हमारे व्यक्तिगत टकराव में भी सामाजिक पैटर्न होता है, जो कि पितृसत्तात्मक लिंग नियमों पर आधारित होता है। चूंकि महिलाएं खुद को कमजोर समझती हैं इसलिए वह पुरुषों के जरिए मान्यीकरण व पॉवर की तलाश करती हैं। यह भावनात्मक युद्ध उन महिलाओं में प्रतिबिंबित होता है, जो हावी होने की कोशिश करती हैं। इसकी जड़ें बुनियादी असमता व विभाजन में हैं, जिससे पुरुष व महिलाएं अपने में संपूर्ण होने की बजाय जरूरतमंद अधूरे बने रहते हैं।
एक दूसरे के पूरक
अपनी कमजोरी को छुपाने के लिए वह बड़े और ताकतवर होने के झूठ में रहने का प्रयास करते हैं। लड़कियों के अंदाज में जीने वाले लड़के का मजाक बनाया जाता है। लड़कों को सिखाया जाता है कि वह अपनी भावनाओं को काबू में रखें और अपने दर्द को गुस्से से छुपाएं। परिवार, खेल व कार्यस्थल के नियम पुरुषों को सिखाते हैं कि वह बाहरी ताकत से अपना वर्चस्व कायम करें। इस व्यवस्था में असफल होने वाले पुरुष हिंसा व लत में शरण लेते हैं। यह पुरुषों पर पितृसत्तात्मकता के नुकसान हैं। लेकिन उन्हें महिलाओं की तरह पितृसत्तात्मकता का पीड़ित समझने की बजाय पितृसत्तात्मकता का विद्रोही समझा जाता है। दरअसल, समझने की बात यह है कि पुरुष व महिला एक-दूसरे के पूरक हैं। वह एक-दूसरे की इज्जत करें, प्यार करें, सहयोग करें तो ही समाज चलता है और पितृसत्तात्मकता को चुनौती दी जा सकती है व दोनों को आजादी व बराबरी मिल सकती है। वर्ना यही चलता रहेगा कि आज अतुल को रो रहे हैं, कल किसी अनीता को रोएंगे।

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