मुख्यपृष्ठस्तंभकॉलम ३ : सावन के महीने में यादों के झूले

कॉलम ३ : सावन के महीने में यादों के झूले

रमेश सर्राफ धमोरा
(झुंझुनू, राजस्थान)

‘पड़ गए झूले सावन रुत आई रे, सीने में हूक उठे अल्लाह दुहायी रे।’
ऐसे गीत सावन आते ही लोगों की जुबान पर खुद-ब-खुद आ जाते हैं। पहले सावन शुरू होते ही गांव की गलियों से लेकर शहरों तक झूले पड़ते थे। महिलाएं झूला झूलतीं और गाती थीं। झूले झूलने के दौरान गाए जानेवाले गीत मन को सुकून देते हैं। झूले गांव के बागीचों, मंदिर के परिसरों में डाले जाते थे।
सावन व भादों का महीना हमें प्रकृति के और निकट ले जाता है। सावन को बहुत पवित्र महीना माना जाता है। मान्यता है कि सावन में माता पार्वती ने भगवान शिव की तपस्या करके उन्हें पाया था। सावन दक्षिणायन में आता है, जिसके देवता शिव हैं। इसीलिए इन दिनों उन्हीं की आराधना शुभ फलदायक होती है। सावन के महीने में बहुत वर्षा होती है। इसलिए इसे वर्षा ऋतु का महीना या पावस ऋतु भी कहा जाता है।
भारतीय संस्कृति में झूला झूलने की परंपरा वैदिक काल से ही चली आ रही है। श्री कृष्ण, राधा संग झूला झूलते और गोपियों संग रास रचाते थे। मान्यता है कि इससे प्रेम बढ़ने के अलावा प्रकृति के निकट जाने एवं उसकी हरियाली बनाए रखने की प्रेरणा मिलती है। एक दौर था जब लोगों को सावन के महीने का बेसब्री से इंतजार रहता था। लेकिन अब यह परंपरा खत्म होती जा रही है। अब न तो झूले पड़ते हैं और न ही गीत सुनाई देते हैं। बच्चे अब झूले नहीं, वीडियो गेम में मस्त रहते हैं। महिला संगठन भी अब किटी पार्टी जैसे आयोजनों तक सीमित हैं। झूले की परंपरा लुप्त होने के पीछे सबसे प्रमुख वजह मनोरंजन के भरपूर साधनों का होना भी है।
सावन में झूला झूलना मात्र आनंद की अनुभूति नहीं कराता अपितु यह स्वास्थ्यवर्धक प्राचीन योग भी है। सावन में चारों तरफ हरियाली छाई होती है। हरा रंग आंखों पर अनुकूल प्रभाव डालता है। इससे नेत्र ज्योति बढ़ती है। झूला झूलते समय श्वास-उच्छवास लेने की गति में तीव्रता आती है। इससे फेफड़े सुदृढ़ होते हैं। इसके साथ ही झूलते समय श्वास अधिक भरी, रोकी एवं वेग से छोड़ी जाती है। इससे नवीन प्रकार का प्राणायाम पूर्ण हो जाता है, जो स्वास्थ्यवर्धक है। झूलते समय रस्सी पर हाथों की पकड़ मजबूत होती है। इसी प्रकार खड़े होकर झूलते समय झूले को गति देने के लिए बार-बार उठक-बैठक लगानी पड़ती हैं। इन क्रियाओं से एक ओर हाथ, हथेलियों और उंगलियों की शक्ति बढ़ती है। वहीं दूसरी ओर हाथ-पैर और पीठ-रीढ़ का व्यायाम हो जाता है।
हालांकि, झूले की परंपरा लुप्त होने के साथ ही सावन-भादों की खुशबू अब कहीं नहीं दिखती है। कुछ स्थानों को छोड़कर लोग इसका आनंद नहीं ले पा रहे हैं। झूलों के नहीं होने से हमें लोक संगीत भी सुनने को नहीं मिलता है। आधुनिकता की दौड़ में प्रकृति के संग झूला झूलने की बात अब कहीं नहीं दिखती है। आज से दो दशक पहले तक झूलों और मेहंदी के बिना सावन की परिकल्पना भी नहीं होती थी। आज के समय में सावन के झूले नजर नहीं आने का कारण जनसंख्या घनत्व में वृद्धि के साथ ही वृक्षों की कटाई है। लोग अब घर की छत पर या आंगन में लोहे के झूले पर झूलकर मन को संतुष्ट कर रहे हैं। बुद्धिजीवी वर्ग सावन के झूलों के लुप्त होने की प्रमुख वजह सुख-सुविधा और मनोरंजन के साधनों में वृद्धि को मान रहे हैं। झूला झूलने के खत्म हुए रिवाज के लिए गांवों में पैâल रही वैमनस्यता भी जिम्मेदार हैं। पहले गांव के लोग हर बहन-बेटी को अपनी मानते थे, लेकिन अब जमाना बदल गया है। जिसके हाथ में रक्षा सूत्र बांधा जाता है, वही भक्षक बन जाता है। बाग-बागीचों के खात्मे के साथ भाईचारे में कमी आई है। नतीजतन, झूला झूलने की परंपरा को ग्रहण लग गया है।
पहले संयुक्त परिवार में बड़े-बूढ़ों के सानिध्य में लोग एक-दूसरे के घरों में एकत्रित होते थे। आज बढ़ती एकल परिवार की प्रवृत्ति आपसी स्नेह को खत्म कर दिया है। महिलाएं सामुदायिक केंद्रों में जाकर पर्व मनाती हैं। शहरों में अब झूले डालने के लिए जगह की तलाश करनी पड़ती है। अब तो पारंपरिक पहनावा भी आधुनिकता की भेंट चढ़ गया है। अब छुट्टी के दिन लोग परिवार के साथ बाग-बागीचों में जाकर सावन का त्यौहार मनाने की रस्म पूरी करते हैं। वर्षा ऋतु में सावन की खूबियां अब किताबों तक ही सीमित रह गई हैं। अब प्रकृति के साथ जीने की परंपरा भी थमती सी जा रही है।

(लेखक राजस्थान सरकार से मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार हैं। इनके लेख देश के कई समाचार पत्रों में प्रकाशित होते रहते हैं।)

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