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महंगाई और बेरोजगारी से त्रस्त आम आदमी

डॉ. सुषमा गजापुरे `सुदिव’
आज ऐसा प्रतीत हो रहा है कि देश के राजनैतिक पटल से अब आम आदमी के कुछ महत्वपूर्ण मुद्दे बिलकुल गायब हो गए हैं। न तो इन मुद्दों पर कोई चर्चा होती है और न ही संसद में कोई चर्चा करवाई जाती है। ये मुद्दे रोजाना जिंदगी में आम आदमी को त्रस्त करनेवाले महंगाई और रोजगार से संबंधित हैं। कुछ वर्ष पहले तक ये मुद्दे राजनीति और मीडिया दोनों में प्रमुखता से उठाए जाते थे, पर अब ये पूरी तरह से हाशिए पर चले गए हैं। कहने के लिए सरकार कहती है कि ९ वर्षों से महंगाई काबू में है, पर सालाना महंगाई-दर में वृद्धि को देखें तो समझ आएगा कि जो तस्वीर आम आदमी को दिखाने की कोशिश की जा रही है वह भ्रमित करनेवाली है। महंगाई हर वर्ष, हर माह, हर मौसम में एक दानव की तरह मुंह उठाकर चली आती है और सरकार के नुमाइंदे उसे एक मौसमी बदलाव या त्रासदी कहकर टाल देते हैं। टमाटर के भाव देखकर चेहरे वैसे ही लाल हो रहे हैं। दो महीने पहले अरहर दाल का भाव लगभग १०० रुपया किलो था, जो अब १५०-१७५ के बीच पहुंच गया है। सभी सब्जियां, दालें, खाने का तेल, अनाज व अन्य प्रतिदिन के उपभोग की वस्तुओं के दामों ने हर वर्ग की कमर तोड़ दी है। पिछले एक वर्ष में दूध के दाम लगभग ३०-५० प्रतिशत तक बढ़ गए हैं जो कि अप्रत्याशित है पर सरकार राष्ट्रीय मुद्दों में मस्त है, जिनका आम जनमानस के जीवन से कोई वास्ता ही नहीं है।
ऐसे में देश का गरीब वर्ग प्रतिदिन का खर्चा वैâसे कर पा रहा होगा, यह भी एक गंभीर प्रश्न है। खाने-पीने के सामानों से नजर हटाकर दूसरी ओर डालें तो देखेंगे कि पेट्रोल-डीजल पर अत्यधिक करों के कारण सरकार एक तरह से मुनाफाखोरी में लगी हुई है। रूस से ५०-६० डॉलर प्रति बैरल पर कच्चा तेल मंगवाकर जनता को सौ रुपया प्रति लीटर पर पेट्रोल-डीजल बेचकर सरकार बड़ी मुनाफाखोरी में लगी है। क्रेडिट कार्ड का बढ़ता हुआ प्रचलन इस बात का प्रतीक है। आम जनमानस के पास पैसे नहीं हैं और वो क्रेडिट कार्ड का उपयोग करने को मजबूर है। क्रेडिट कार्ड से लोन लेने के आंकड़े पहली बार २ लाख करोड़ से आगे बढ़ गए हैं। रिजर्व बैंक ने अभी हालिया रिपोर्ट में कहा कि निजी उपभोग जिसे प्राइवेट कंसप्शन भी कहते हैं इस समय न केवल स्थिर है, बल्कि उसमें धीरे-धीरे गिरावट आ रही है। यही निजी उपभोग पूरी अर्थव्यवस्था का लगभग ६० प्रतिशत हिस्सा है। अगर हम पिछले कुछ महीनों में महंगाई के आंकड़े देखें तो पाएंगे कि महंगाई सभी सीमाएं पार कर गई है। गरीब परिवारों का ८० प्रतिशत खर्चा सिर्फ भोजन से संबंधित वस्तुओं को खरीदने में हो जाता है। इसके अलावा बढ़ते हुए बच्चों के शिक्षा और स्वास्थ्य के खर्चे हर व्यक्ति को दिवालिया बना रहे हैं। बच्चों की कॉपी-किताबें पिछले दो वर्षों में दोगुनी कीमत की हो गई हैं। दवाइयों के दाम आसमान छू रहे हैं और सरकारी अस्पतालों का तो भगवान ही मालिक है।
महंगाई से जूझते हुए आम भारतीय रोजगार के जाने से परेशान है। भारी बेरोजगारी से बड़ी संख्या परेशान है। हर ५ में से एक पुरुष बेरोजगार है। हर ५ में से ४ महिलाएं बेरोजगार हैं या कोई काम नहीं कर रही हैं। इस प्रकार भारत की आधी वर्क फोर्स काम ही नहीं कर रही है। डाउन के उपरांत असंगठित क्षेत्र के कई उद्योग-धंधे हमेशा के लिए बंद हो गए। बहुत से लोग जो लॉकडाउन से पहले प्रतिदिन ५००-८०० रुपया प्रतिदिन मजदूरी से कमा लेते थे और परिवार का भरण-पोषण करते थे। अब वे २००-३०० रुपया प्रतिदिन पर भी बड़ी मुश्किल से काम करने को मजबूर हैं। यही गंभीर कारण हैं, जिसके कारण सरकार ८२ करोड़ लोगों को ५ किलो अनाज मुफ्त दे रही है, ताकि उन्हें जिंदा रखा जाए। ये परिस्थिति किसी भी देश के लिए बहुत ही खतरनाक है।
भारत के १०० करोड़ गरीबों के लिए महंगाई और बेरोजगारी दोहरी मार लेकर आई है। इस स्थिति से निकलने में समय लगेगा। हां, यह जरूर कहा जा सकता है कि सरकार की गरीबों के प्रति उदासीनता जनता को परेशान करनेवाली है। कोई भी मंत्री महंगाई के मुद्दे पर बोलने को तैयार नहीं। रोजगार का मुद्दा तो हाशिए पर चला गया है। सरकार इस मुद्दे पर इतनी गंभीर नहीं है, इसलिए वह जरूरत नहीं समझती कि संसद के सत्र में इन मुद्दों पर चर्चा भी हो। भारत के १०० करोड़ गरीबों के लिए यह एक मजबूरी की स्थिति है। डूबती अर्थव्यवस्था, सरकार की उदासीनता और सरकार द्वारा आम आदमी के लिए किसी भी तरह की राहत न देने का इरादा स्थिति को और अधिक भयावह बना रहा है। आम आदमी के भाग्य में शायद यही त्रासदी लिखी है कि वह हमेशा ही महंगाई और बेरोजगारी की चक्की में पिसता रहे।
(स्तंभ लेखक आर्थिक और समसामयिक विषयों पर चिंतक और विचारक है)

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