सूर्य वंदना
हे! सूर्य देवता तुम्हें प्रणाम
जो दिन और रात्रि हमें दिखलाते।
पत्तियों को भोज बनाना सिखलाकर
पूरे संसार की भूख जो मिटाते।
कोई तुम्हें रा है कहता
कहीं `अकीरा’ तुम कहलाते।
`मध्य रात्रि का सूर्य’ बनकर कहीं
अनेकानेक पर्यटकों को लुभाते।
कहीं `सूर्यकोटि समप्रभ:’ बनकर,
विघ्नहर्ता से अपनी तुलना करवाते।
सौर मंडल का केंद्र बनकर,
नव ग्रहों से अपना चक्कर लगवाते।
अंतर नहीं तुम्हें राजा-रंक का
प्रकाश सभी को दिखलाते।
कभी उत्तरायण तो कभी छठ के रूप में,
नए-नए त्योहारों का आनंद दिलवाते।
बुद्धिमान हो तो ज्ञानसूर्य,
साहसी हो तो सूर्यप्रताप, सभी गुण पाए तुम में अभिमान।
हे सूर्य देवता तुम्हें प्रणाम!
-पुनीत बंसल
गुजरा बचपन
दादा जी कंधे पर बैठाकर
पूरा गांव घुमाते थे,
और पिता जी हमें पीठ पर
रख घोड़ा बन जाते थे।
राजा रानी वाली कहानी,
दादी हमें सुनाती थी,
नित्य लोरियां गाकर मां तब
गोद में हमें सुलाती थी।
अपनी मां की गोद में
हर एक राजदुलारा सोता था।
सचमुच में वो गुजरा बचपन
कितना प्यारा होता था।
खूब मचाते उछल-कूद हम
गली-मोहल्ले-गांव में,
जब थक जाते चौपाल लगाते
हम बरगद की छांव में।
खेलकूद कर दिनभर जब हम
मिट्टी में सन जाते थे।
मिट्टी में घुल मिल कर के हम
मिट्टी से बन जाते थे।
सब से अलग दिखते थे हम
अद्भुत ही नजारा होता था,
सचमुच में वो गुजरा बचपन
कितना प्यारा होता था।
करते थे प्रतिभाग तब हम
हर तरह के खेलों में,
और पहुंच जाते थे समय पर
लड़ झगड़ कर मेलों में।
जब जाना हो विद्यालय तो
हम रोते-रोते जाते थे,
आकर विद्यालय से मां के
सीने से लग जाते थे।
मां के आंचल में सुख-चैन
कितना सारा होता था,
सचमुच में वो गुजरा बचपन
कितना प्यारा होता था।
ना सुख की अभिलाषाएं थीं
ना दुख से चिंतित होते थे,
जब पड़ जाए फटकार किसी से
तो फिर निश्चित रोते थे।
क्षणभर के गुस्से के बाद खुशी
चेहरे पर आ जाती थी,
दादी जब सन्दूक खोलकर
गुड़ मीठा हमें खिलाती थी।
दादी का वो लाड-प्यार
इस जग से न्यारा होता था,
सचमुच में वो गुजरा बचपन
कितना प्यारा होता था।
-योगेश बहुगुणा ‘योगी’
मान-मर्यादा सब खोने लगे हैं
तुम्हारे जुल्म से डरने लगे हैं
मुर्दे क्यों सड़कों पर चलने लगे हैं।।
गंध कुछ विषैली हवाएं हो गर्इं
शहर के शहर सभी मरने लगे हैं।।
है अश्वमेध का बेलगाम घोड़ा
टापोें की आवाज, भरने लगे हैं।।
सौगंध खाकर जिसे कायम किया था
वही विश्वास क्यों बिखरने लगे हैं।।
जो कुएं को छोड़कर आगे बढ़े
समंदर के किनारे मरने लगे हैं।।
सजी महफिल में सारे मतलबी हैं
धर्म ईमान राज क्यों बिकने लगे हैं।।
जरा से लोभ में घिरा जो `उमेश’
मान-मर्यादा सब खोने लगे हैं।।
-डॉ. उमेश चंद्र शुक्ल
हम आज तक समझे नहीं
कम सही पर बात दिल की जुबां से होती तो है
जिंदगी की हर खुशी में मुझको शामिल करती तो है।
याद आती है बहुत बीते समय की बात सब
आज भी वो तमन्ना दिल को बहलाती तो है।
जिंदगी का फलसफा हम आज तक समझे नहीं
रुक न जाए सांस अब जो राह दिखलाती तो है।
मुस्कुरा कर दर्द मे भी अब तलक जीते रहे
आखिरी पल पास आया रूह समझाती तो है।
यार अपनी जिंदगानी बस खुदा की मेहरबानी
बंदगी कर खुदा की हर राह दिखलाती तो है।
-नूतन सिंह `कनक’
इंसानी अब सोच कहां
एक गांव एक शहर
सब बदल गया
ताल-तलइया पोखर-नदी
कुआं-ढेंकुर-नहर कहां
पीपल बरगद छांव कहां।
पेड़ों की सरसराहट
चिड़ियों की चहचहाहट
भौरों का गुंजन अब कहां।
तीतर और कबूतर
सारस-हंस-जटायु
गौरैया का झुंड कहां।
बाग-बगीचे-गेंदा फूल
घर-आंगन में तुलसी माता
चौखट पर अब दीप कहां।
चकाचौंध से शहर पटा
भीड़ भयावह मत पूछो
जंगल कटते बनी इमारत,
कंकड़-पत्थर सा जीवन
पत्थर से सब लोग यहां
बद से बद्तर जीते
इंसानी अब सोच कहां।
-दिवाकर सिंह ‘प्रबल’
क्या रह पाओगे
इंसानियत के नाते उसको जानना पड़ा।
मेरे लिए जो नेह था पहचानना पड़ा।
इश्क ने उसका हमें सब कुछ सिखा दिया,
कमबख्त दिल्लगी थी तभी मानना पड़ा।
बात दिल में दबाके क्या रह पाओगे।
कुछ हमें ना बताके क्या रह पाओगे।
जब बना ही लिया दूर रहने का मन,
प्यार दिल में जगाके क्या रह पाओगे।
-धीरेंद्र वर्मा `धीर’
गीत गाऊंगी
गीत गाऊंगी सदा मैं नारियों के हर्ष की।
हर्ष की उत्कर्ष की सृष्टि के निष्कर्ष की।
दिती-अदिती-दुर्गा-काली-सीतालक्ष्मी धर्म की।
अनुसूया-लक्ष्मीबाई चावला के कर्म की।
गीत गाऊंगी सदा में नारियों के हर्ष की।
पूजित जहां हैंै नारियां होता वहीं पर स्वर्ग भी।
होता निरादर यदि कहीं निष्फल रहा है कर्म भी।
मातृसत्तात्मक व्यवस्था थी हमारी वेद में।
सावित्री-यमी-देवयानी विदुषी भी थीं।
गीत गाऊंगी सदा मैं नारियों के हर्ष की।
देव सम्राज्ञी शचि थी इंद्राणी विदुषी भी थीं।
सती-शतरूपा स्वयंभू मनु की पत्नी भी थीं।
सप्तर्षि मंडल में ऋषि पत्नी अरुंधति भी थीं।
मैत्रेई-गार्गी-विद्योत्तमा हारी नहीं शास्त्रार्थ की।
गीत गाऊंगी सदा में नारियों के हर्ष की।
मध्यकाल में नारियों की स्थिति बदली गई।
धन की कमी से नारियां मजदूरी में जोड़ी गर्इं।
अब राष्ट्र के उत्थान की असली धुरी हैं नारियां।
पत्नी-बहन-बेटी बनी मां सेविका का कार्य की।
गीत गाऊंगी सदा में नारियों के हर्ष की।
-सत्यभामा सिंह
वृक्ष बचाओ
विश्व बचाओ
वृक्ष धरा के आभूषण हैं
यह सच मानव ले जान,
वृक्ष बिना इस धरती पर
जिंदा न रह सके इंसान!
-डॉ. मुकेश गौतम, वरिष्ठ कवि
जताना जानते हैं हम
मुहब्बत है अगर तुमसे जताना जानते हैं हम।
तुम्हारे नाज-नखरे सब उठाना जानते हैं हम।
पहाड़ा पढ़ चुके हैं आशिकी का यार पहले भी।
है कितना जोड़ना कितना घटाना जानते हैं हम।
फकत कातिब समझने की अगरचे भूल मत करना।
कलम के साथ तलवारें चलाना जानते
हैं हम।
हमारी दोस्ती तुमको समझ में गर न आएगी।
बखूबी दुश्मनी को भी निभाना जानते हैं हम।
हमारी तालियों की शोर से मगरूर मत होना।
बिठाया है फलक पर तो गिराना जानते हैं हम।
-एड. राजीव मिश्रा
बस एक बार
एक बार
बस एक बार
खोल दो घर के सारे दरवाजे,
खिड़कियाँ और झरोखे….
आने दो – जाने दो
हवाओं को
खबरों को
लोगों को….।
घुल जाने दो
आस पास के परिवेश में
मिल जाने दो
सब कुछ मनचाहे वेश में।
रोको मत
टोको मत
छोड़ दो
तराजू की डंडी को
मत देखो
उठते-गिरते पलड़े को।
फिर…..
फिर टूटेंगी
घड़े की दीवारें
और….
भीतर- बाहर सब एक होगा
पानी भी
पर्यावरण भी
परिवेश भी
हवा और खबरें भी
सुख और दुःख भी
सरहद और समस्याएँ भी
संस्कृति, सभ्यता और साहित्य भी।
एक बार
बस एक बार
बंधन ढहाकर
आगत को अपनाकर
दिलों को मिलाकर
अतीत भुलाकर
देखो तो सही
बस एक बार।
-डॉ अवधेश कुमार अवध
तुम मेरी रहगुजर के नहीं थे
तुम नगर में नगर के नहीं थे।
गैर थे अपने घर के नहीं थे।।
चल रहे साथ तुम तो सफर में।
तुम तो मेरी डगर के नहीं थे।।
हाथ मिलते-मिलाते थे लेकिन।
हमसफर तुम सफर के नहीं थे।।
दे रहे गालियां जो वतन को।
हम वतन वो इधर के नहीं थे।।
खून में है मिलावट तुम्हारे।
वर्ना कायर जिगर के नहीं थे।।
हो नदी के भंवर जैसे जालिम।
जो कभी भी लहर के नहीं थे।।
काश `राही’ ये सच जानते हम।
तुम मेरी रहग़ुजर के नहीं थे।।
-अनिल कुमार `राही’