मुख्यपृष्ठस्तंभसम-सामयिक : उपग्रह से इंटरनेट सेवा, किसके लिए फायदेमंद?

सम-सामयिक : उपग्रह से इंटरनेट सेवा, किसके लिए फायदेमंद?

संजय श्रीवास्तव

देश में सेटेलाइट इंटरनेट का दौर शुरू होने वाला है। हर तकनीक की एक खासियत होती है और कई बार वह खास क्षेत्र के ही काम आती है। सेटेलाइट ब्रॉडबैंड तकनीक भी ऐसी ही है। अब जबकि देश में यह सेवा आने वाली है तो इससे जुड़ी संभावनाओं, आशंकाओं के मद्देनजर यह देखना होगा कि इससे आम जनता क्या भला होगा और सेवा प्रदाता को कितना लाभ होगा?
दुनिया के १०० से ज्यादा देशों में उपग्रह के जरिए इंटरनेट सेवा देने का उपक्रम चालू है। यूक्रेन में कई वर्ष पहले यह सेवा चालू थी, जिसने युद्ध के दौरान बड़ी सहायता की। उस दौर में जब इसके महंगा होने की वजह से लोग इसके प्रति अनिच्छुक हैं, इससे छुटकारा पाने की कोशिश में हैं, तब देश में मुकेश अंबानी वाली रिलायंस इंडस्ट्रीज का जियो प्लेटफॉर्म और यूरोप के लक्जमबर्ग की कंपनी एसईएस का संयुक्त उपक्रम ऑर्बिट कनेक्ट इंडिया भारत का पहला सेटेलाइट इंटरनेट सेवा प्रदाता होगा। कंसल्टेंसी डेलॉइट का अंदाजा है कि भारत का सेटेलाइट ब्रॉडबैंड सेवा बाजार अगले पांच वर्षों में ३६³ प्रति वर्ष की दर से बढ़कर २०३० तक दो बिलियन डॉलर पहुंच सकता है। ऐसे में इस सेवा के आने से पहले ही इसके बारे में कई वादों, दावों का दौर चल पड़ा है, कहा जा रहा है कि देश में शीघ्र आरंभ होने वाली यह सेवा देश में इंटरनेट परिदृश्य को बिल्कुल बदल देगी। उपग्रहों के जरिए आने वाले इंटरनेट सिगनल की तूफानी गति और उसकी सुदूर तथा अगम्य क्षेत्रों तक व्यापक क्रांति ला देगी। स्वास्थ्य, शिक्षा, प्रशासन और बाजार की पहुंच बेहतर हो जाएगी।
कुछ का अनुमान है कि इसके आने से दूरसंचार के क्षेत्र में काम कर रहे छोटे भारतीय खिलाड़ी, स्टार्टअप बर्बाद हो जाएंगे, महज जियो का एकाधिकार रहेगा। सरकार को स्पेक्ट्रम की नीलामी करानी चाहिए थी, ऊंची बोलियां लगतीं तो देश को भारी राजस्व मिलता। एक पक्ष यह भी कह रहा है कि भविष्य में सरकार तमाम देशी-विदेशी कंपनियों को मौका देगी, जिससे प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी और यह क्षेत्र नए आविष्कारों, सुधारों, बेहतर तथा सस्ती सेवाओं की और अग्रसर होगा। यह सेटेलाइट इंटरनेट सेवा डिजिटल डिवाइड को कम कर देगी। रिलायंस इंडस्ट्रीज के जियो प्लेटफॉर्म्स को गीगाबाइट फाइबर इंटरनेट सेवा हेतु उपग्रहों को संचालित करने के लिए भारतीय अंतरिक्ष नियामक राष्ट्रीय अंतरिक्ष संवर्धन और प्राधिकरण केंद्र से मंजूरी के पीछे पक्षपात है। यह महज मुकेश अंबानी को फलने-फूलने का मौका देने जैसे है।
अब रही बात उपग्रह आधारित इंटरनेट सेवा के शीघ्र शुरू होने की तो यह मुश्किल लगता है। परिचालन शुरू करने के लिए दूरसंचार विभाग द्वारा और मंजूरी की आवश्यकता है और यह लंबी प्रक्रिया है। सरकार इस सेवा को शीघ्र मंजूरी दे भी दे तो आमजन तक इसे तत्काल पहुंचाना और फिर आमजन द्वारा इसे अपनाना बहुत व्यावहारिक नहीं लग रहा है। ५जी आने और ६जी की तैयारी के साथ उपग्रह आधारित इंटरनेट कितना प्रभावी होगा, आम उपभोक्ता के लिए कितना उपयोगी होगा और कंपनी को कितना बड़ा बाजार मिल सकेगा, ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा।
सेटेलाइट इंटरनेट प्रदाता अगर लो-अर्थ ऑर्बिट को प्राथमिकता देते हैं तो ढेरों उपग्रहों की सेवा लेनी होगी, जियो स्टेशनरी ऑर्बिट से इंटरनेट का प्रबंध करता है तो स्पीड धीमी होगी और यह दूसरे कारणों से महंगा पड़ेगा। जमीन पर जगह-जगह तकनीक सक्षम नियंत्रण केंद्र बनाने, प्रबंधन करने में प्रदाता को बहुत व्यय करना होगा और उपभोक्त उससे जो राउटर, मोडेम, केबिल और दूसरी चीजों के मासिक सबस्क्रिप्शन लेगा वह भी कतई सस्ता नहीं होगा। स्टार्लिंक के मामले में भारतीय देख चुके हैं। बिना सरकारी सहायता के ग्रामीण या सुदूर क्षेत्रों में इसकी सेवा गरीब ग्रामीणों के लिए मुश्किल होगी। दावे के उलट इस उपग्रह आधारित इंटरनेट की गति कभी-कभार ही तेज मिलती है, अन्यथा इसकी सुस्त रफ्तारी की शिकायतें ज्यादा हैं।
सेटकॉम कंपनियों ने जब इस सेवा को छत्तीसगढ़ के कोरबा, उड़ीसा के नबरंगपुर और गुजरात के गीर नेशनल पार्क, असम के ओएनजीसी-जोरहाट में जांचा तो पाया कि केबल इंटरनेट के मुकाबले इसकी स्पीड कम और विलंबता अधिक है। बढ़िया मौसम और साफ आसमान इस सेवा को अबाध जारी रहने के लिए आवश्यक है। अब इसकी गारंटी सरकार और सेवा प्रदाता कोई नहीं ले सकता है। इसकी विश्वसनीयता सदैव संदिग्ध रहती है, मौसम ठीक होने के बाद अपनेआप जारी भले हो जाता हो, लेकिन इसकी अनुपस्थिति के दौरान वैकल्पिक व्यवस्था, बैकअप या आकस्मिक योजना क्या होगी? आधे सेकंड की लेटेंसी रेट यानी विलंबता इसको कुछ विशेष कार्यों के लिए अनुपयुक्त बनाती है।
यह वीपीएन को सपोर्ट नहीं करता और बहुत सुरक्षित भी नहीं है। सबसे बड़ी बात यह कि यदि कोई शहर, कस्बे या किसी ऐसे क्षेत्र में रहता है, जहां उसे बेहतर मोबाइल नेटवर्क, केबिल या फाइबर के जरिए इंटरनेट मिल जाता हो तो वह इस महंगे और सुस्त के विकल्प को भला क्यों चुनेगा? तमाम देशों में अधिकांश लोगों के लिए यह अरुचिकर सेवा रही है। इसका सकारात्मक पक्ष यह है कि दुर्गम क्षेत्रों, में तैनात सेना, वहां रहने वालों या यात्रा करने वालों के लिए सरकारी सहायता से सस्ती सेवा प्रदान करने की एक तकनीक उपलब्ध होगी। सेटेलाइट ब्रॉडबैंड नेटवर्क इंटरनेट-ऑफ-थिंग्स उत्पादों को ऐसे क्षेत्रों में सदैव कनेक्टेड रखने में मदद करेगा, लेकिन इसके लिए स्पेस में बहुत ज्यादा उपग्रह भेजने होंगे, जिससे अंतरिक्षीय मलबे में भारी वृद्धि होगी। फिलहाल, पैसों के मोल के लिए जागरूक आम भारतीय उपभोक्ताओं में इस सेवा की सफलता सरकारी सहायता या मार्वेâटिंग के खेल के बिना संदिग्ध लगती है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार हैं)

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