मुख्यपृष्ठस्तंभसम-सामयिक : न्यायाधीशों की फिसलती जुबान और सुप्रीम कोर्ट का हथौड़ा!

सम-सामयिक : न्यायाधीशों की फिसलती जुबान और सुप्रीम कोर्ट का हथौड़ा!

नरेंद्र शर्मा

सुप्रीम कोर्ट ने २५ सितंबर २०२४ को संवैधानिक अदालतों के न्यायाधीशों पर इस बात का बल दिया कि वह अपनी पूर्ववृत्तियों के प्रति जागृत रहें और संयम बरतें, ताकि अपनी बुनियादी जिम्मेदारियों के प्रति वफादार रहें और स्त्री जाति से द्वेष या कुछ समुदायों की ओर पूर्वाग्रहपूर्ण प्रतीत हुए बिना वस्तुनिष्ठ व न्यायोचित पैâसले सुना सकें। सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक हाई कोर्ट के न्यायाधीश वी श्रीशानंद की टिप्पणियों का स्वत: संज्ञान लिया था, जिन्होंने एक केस की सुनवायी के दौरान बंगलुरु की एक बस्ती को ‘पाकिस्तान’ कहा था और एक महिला वकील से महिलाओं के सिलसिले में आपत्तिजनक बात कही थी। भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, न्यायाधीश संजीव खन्ना, न्यायाधीश बीआर गवई, न्यायाधीश सूर्यकांत और ऋषिकेश रॉय की खंडपीठ ने श्रीशानंद को तगड़ी फटकार लगाते हुए कहा, ‘हमने आपके अवलोकनों की प्रवृत्ति को देखा है। कोई भी भारत के किसी भी भाग को पाकिस्तान नहीं कह सकता है। यह बुनियादी तौरपर राष्ट्र की क्षेत्रीय अखंडता के विपरीत है।’ खंडपीठ ने बिना किसी लाग लपेट के कहा कि श्रीशानंद की टिप्पणियां मौखिक अहेतुक थीं, जिन्हें ‘व्यक्त नहीं किया जाना चाहिए था’ और उन्हें न्यायपालिका के संस्थागत सम्मान की खातिर ही नोटिस नहीं दिया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने श्रीशानंद को अतिरिक्त शर्मिंदगी से इसलिए बख्श दिया क्योंकि उन्होंने खुली अदालत में माफी मांग ली थी।
हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने स्वत: संज्ञान की इस कार्यवाही को बंद कर दिया है, लेकिन दिलचस्प यह है कि दो टॉप विधि अधिकारियों का इस संदर्भ में मत परस्पर विरोधी था। एटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमाणी ने इन-हाउस जांच का प्रस्ताव रखा ताकि विवाद के पीछे के तथ्य जाहिर हो सकें, जबकि सोलिसिटर जनरल तुषार मेहता केस को बंद करने के पक्ष में थे। दरअसल, जरुरत केवल यही नहीं है कि न्यायाधीश ही तोल-मोलकर बोलें बल्कि वकील व याचिकाकर्ता जो अदालतों में व्यक्तिगत रूप से प्रस्तुत होते हैं वह भी अपनी जबान पर काबू रखें क्योंकि अब लाइव-स्ट्रीमिंग व वीडियो कॉन्प्रâेंस की सुविधाएं अदालती प्रक्रियाओं को अदालत के बाहर भी लाखों लोगों तक ले जाती हैं। यही कारण है कि श्रीशानंद की दो वीडियो क्लिप सोशल मीडिया पर वायरल हुर्इं। एक, वीडियो में उन्हें बंगलुरु के एक इलाके को ‘पाकिस्तान’ कहते हुए देखा गया, जो स्पष्ट रूप से मुस्लिम बहुल है। अन्य वीडियो में उन्हें एक महिला वकील के लिए आपत्तिजनक टिप्पणी करते हुए देखा गया।
बहरहाल, सवाल यह है कि शब्दों व वाक्यों का सही चयन क्या सिर्फ अदालतों में ही होना चाहिए? नहीं। आजकल तो राजनीतिक व चुनावी सभाओं में बड़े-बड़े नेता विभिन्न समुदायों व जातियों के विरुद्ध ऐसे अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करते हैं कि अदालतें अगर सही से उनका संज्ञान लेने लगें तो आधे से ज्यादा नेता जेल में सलाखों के पीछे होंगे। टीवी डिबेट्स का तो इससे भी बुरा हाल है कि बात गालियों व हाथापाई तक पहुंचने लगी है। दिल्ली की सीमा पर धरना दे रहे किसानों के बारे में टीवी एंकरों ने क्या कुछ नहीं कहा था। यौन उत्पीड़न की पीड़ित महिलाओं के बारे में तो मंत्रियों से लेकर जज तक इतनी बकवास कर चुके हैं कि उसके याद आते ही मुंह शर्म से लाल हो जाता है। कोलकाता हाई कोर्ट के एक न्यायाधीश ने तो बलात्कार पीड़ित एक किशोरी से ‘अपनी जवानी काबू में रखने’ को कहा। ज्यादा पुरानी बात नहीं है जब लोकसभा में एक सांसद ने दूसरे सांसद को ‘आतंकी’ आदि कहते हुए धमकी दी थी। इस किस्म के किसी भी मामले में कोई कार्यवाही हुई हो, ऐसा याद तो नहीं पड़ता है।
ऐसा प्रतीत होता है कि आपत्तिजनक व अपमानजनक बातों के प्रति हमारा दृष्टिकोण ‘सब चलता है’ वाला हो गया है। यह सभ्य समाज के लिए अच्छी खबर नहीं है। यह दीमक है। अगर इलाज न किया तो समाज अंदर ही अंदर खोखला होता चला जाएगा। निश्चितरूप से सुप्रीम कोर्ट ने अदालतों की गरिमा को बचाए रखने के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाया है कि एक न्यायाधीश को ही उनके द्वारा की गर्इं आपत्तिजनक टिप्पणियों के लिए कटघरे में खड़ा किया है। कर्नाटक हाई कोर्ट के न्यायाधीश की टिप्पणियां गैर-जरूरी ही नहीं, बल्कि भावनाओं को आहत करने वाली भी थीं। हालांकि, श्रीशानंद ने पहले ही माफी मांग ली थी, लेकिन उनका शुरुआती ‘बचाव’ यह था कि उनके शब्दों को संदर्भ से बाहर रखकर प्रचारित किया गया है।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि सुप्रीम कोर्ट को हाई कोर्ट्स के न्यायाधीशों को शिष्टाचार की यह बुनियादी बातें समझानी पड़ रही हैं। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के लिए ऐसा करना जरूरी भी था, क्योंकि अब निरंतर यह खबरें सामने आ रही हैं कि न्यायाधीश या तो खुलकर सांप्रदायिक आरोप लगा रहे हैं या खुलकर महिला विरोधी टिप्पणी कर रहे हैं। क्या ये लोग अचानक आक्रामक हो गए हैं? नहीं। भारत के मुख्य न्यायाधीश ने अदालती प्रक्रियाओं की लाइव-स्ट्रीमिंग व रिकॉर्डिंग का जो स्वागतयोग्य कदम उठाया है, उसकी वजह से अदालतों की कुछ सच्चाई अब सामने आने लगी है। सुप्रीम कोर्ट ने यह केस उठाया और ऐसा करके उसने देश की सभी अदालतों को यह संदेश दिया है कि वह जानता है कि किस किस्म की अनावश्यक व अपमानजनक टिप्पणियां की जाती हैं, जो अब आम जनता तक भी पहुंच जाती हैं। सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि ‘इलेक्ट्रॉनिक युग की मांगें भविष्य में दोनों बार व बेंच को उचित व्यवहार के लिए मजबूर कर देंगी’।
पिछले कुछ वर्षों के दौरान दो मुख्य बातों ने देशभर के कुछ न्यायाधीशों की उपदेशात्मक साधुमन्यता एक्सपोज की है, जहां अदालतों में उनके व्यवहार पर उनके अपने पूर्वाग्रह व पक्षपात हावी हो जाते हैं। एक, लाइव-स्ट्रीमिंग अदालतों को पब्लिक तक ले गई है। दो, समर्पित कोर्ट-रिपोर्टिंग वेबसाइटों का उदय, जो लगभग हर केस, उसके कारणों व टिप्पणियों को कलमबंद कर रही हैं, जबकि पहले ये बातें वकीलों तक ही सीमित रह जाती थीं। ये बातें अदालतों को अधिक जवाबदेह होने के लिए प्रेरित (या मजबूर) कर रही हैं, विशेषकर जनता के प्रति, जिसकी वह सेवा करती हैं। फिर सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार इस बात पर बल दिया है कि न्यायाधीश महिलाओं की ड्रेस, व्यवहार, स्टेटस आदि पर परम्परागत पितृसत्तात्मक व स्त्रीद्वेष टिप्पणी करने से बचें। लेकिन गलत नैतिकता के भ्रम में न्यायाधीश अनावश्यक टिप्पणी करना जारी रखे हुए हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने नवीनतम कदम से इसी चलन पर विराम लगाने का प्रयास किया है- ‘जज करने का दिल व आत्मा यह है कि निष्पक्ष और तार्किक रहा जाए’। उम्मीद है कि देश के सभी न्यायाधीश इस बात पर ध्यान देंगे। सुप्रीम कोर्ट की वजह से न्यायपालिका में तो देर सवेर सुधार आ ही जाएगा, लेकिन उन टीवी एंकर और नेताओं के मुंह पर कौन लगाम लगाएगा, जो दिन रात सांप्रदायिक बातें करते हैं या फटी जीन्स पहनने पर आपत्ति करते हैं।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

अन्य समाचार