मुख्यपृष्ठस्तंभसम-सामयिक : राज्यपालों के अधिकार पर सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला

सम-सामयिक : राज्यपालों के अधिकार पर सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला

नरेंद्र शर्मा

न दोस्त, न फिलॉस्फर

राज्यपाल बनाम राज्य पुरानी कहानी है। एक दौर था, जब राज्यपाल की खेल-पुस्तिका में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश प्रमुख पैंतरा हुआ करता था। अब राज्यपालों द्वारा विपक्ष शासित राज्यों मसलन-तमिलनाडु, केरल, तेलंगाना, पंजाब, पश्चिम बंगाल आदि में विधेयकों पर बैठ जाना, विधानसभा सत्र बुलाने से इंकार कर देना और वाइस चांसलरों की नियुक्तियों को ठुकरा देना वगैरह अधिक आम बातें हो गर्इं हैं। मसलन, नवंबर २०२३ में सुप्रीम कोर्ट राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित के खिलाफ पंजाब की शिकायत से सहमत था, जिन्होंने चार विधेयकों की मंजूरी को रोक लिया था। इससे तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि को सबक ले लेना चाहिए था और विधेयकों को मंजूरी दे देनी चाहिए थी, लेकिन उन्होंने विधेयकों को राष्ट्रपति के पाले में उछाल दिया। नतीजतन सुप्रीम कोर्ट ने ८ अप्रैल २०२५ को उन्हें आड़े हाथों लेते हुए कहा कि उनकी कार्यवाही ‘गलत और अवैध’ थी। दरअसल, विपक्ष द्वारा शासित राज्यों में राज्यपाल अपने आप में कानून नहीं हो सकत। सुप्रीम कोर्ट ने इस तथ्य को पूर्णत: स्पष्ट कर दिया, राज्यपाल रवि के खिलाफ सख्त शब्दों में असाधारण और अपने क़िस्म का पहला फैसला सुनाते हुए।
तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि ने जिन १० विधेयकों को रोका हुआ था, उन्हें सुप्रीम कोर्ट के इस पैâसले के बाद स्वीकृत माना जाएगा। ऐसा पहली बार हुआ है। इसके अतिरिक्त सुप्रीम कोर्ट ने विधेयकों को मंजूरी देने या ठुकराने के लिए समय सीमा भी निर्धारित की है। अब राजभवनों को राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर पैâसला निर्धारित समय सीमा के भीतर करना होगा, ताकि जो कुछ तमिलनाडु में हुआ, वह अन्य राज्यों में न हो सके। रवि ने एक विधेयक को तो जनवरी २०२० से रोका हुआ था। रवि ने जिन विधेयकों को रोका हुआ था, उनसे तमिलनाडु के उच्च शिक्षा संस्थानों पर केंद्र की पकड़ ढीली पड़ रही थी, जिनमें वाइस चांसलरों को नियुक्त करने का अधिकार भी शामिल था। जाहिर है राज्यपाल ‘प्रâेंड, फिलोस्फर एंड गाइड’ की भूमिका में न थे (जैसा कि सुप्रीम कोर्ट के शब्दों में उन्हें होना चाहिए था) बल्कि वे केंद्र के लिए काम करते हुए प्रतीत हो रहे थे। न्यायाधीश जेबी पारदीवाला और न्यायाधीश आर महादेवन की खंडपीठ का पैâसला सभी राज्यपालों (विशेषकर विपक्ष शासित राज्यों के राज्यपालों) पर लागू होता है और इससे एक संवैधानिक अस्पष्टता पर भी विराम लगता है।
दखलंदाजी पर चेतावनी
संविधान में यह तो था कि एक राज्यपाल को ‘जितना जल्दी संभव हो सके’ विधेयक पर पैâसला ले लेना चाहिए, लेकिन इसके लिए कोई समय निर्धारित न था इसलिए राज्यपाल महीनों बल्कि कुछ मामलों में तो वर्षों विधेयक पर पैâसले को रोके रखते थे, जबकि विधानसभा द्वारा पारित विधेयक राज्यपाल की मंजूरी के बाद ही कानून बन सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने इस खालीपन को भरते हुए कहा है कि राज्यपालों को एक माह की समय सीमा के भीतर विधेयकों को मंजूरी देनी होगी। संविधान के अनुच्छेद २०० के शब्दों (जितनी जल्दी संभव हो सके) की अस्पष्टता को दूर करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल को अधिकतम तीन माह के भीतर विधेयक को पुन:विचार के लिए विधानसभा के पास वापस भेजना होगा या राष्ट्रपति के पास भेजना होगा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर किसी विधेयक पर विधानसभा पुन:विचार करके राज्यपाल के पास भेजती है तो राज्यपाल के पास कोई विकल्प नहीं है सिवाय इसके कि वह उसे मंजूरी दे, लेकिन रवि ने सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न पैâसलों का ‘तनिक भी सम्मान’ नहीं किया और विधानसभा द्वारा पुन:विचार के बाद भेज गए विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेज दिया। संविधान उन्हें ‘पूर्ण वीटो’ या ‘पॉकेट वीटो’ का अधिकार नहीं देता है कि वह अनिश्चितकाल तक विधेयकों को रोके रखें।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट का यह पैâसला सभी राज्यों के लिए ऐतिहासिक जीत है और राज्य के प्रशासनिक काम-काज में अनावश्यक दखलंदाजी करने वाले राज्यपालों के लिए सख्त चेतावनी भी है, लेकिन इससे किसी भी सूरत में राज्यपाल के दफ्तर की गरिमा कम नहीं होती है हां, चुनी हुई विधानसभा की श्रेष्ठता अवश्य स्थापित होती है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘राज्य विधानसभा के सदस्यों को राज्य के लोगों ने चुना है। लोकतांत्रिक नतीजे के फलस्वरूप वह जनता की भलाई सुनिश्चित करने के लिए बेहतर स्थिति में हैं।’
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

अन्य समाचार