विजय कपूर
ओडिशा में चुनावी राजनीति की जबरदस्त परीक्षा है, क्योंकि इस राज्य में जो इस समय हो रहा है, वह अतीत में पहले कभी नहीं हुआ। एक राज्य जिसका गठन भाषा को लेकर हुआ था, अब उसकी सियासत अचानक एक गैर-उड़िया भाषी व्यक्ति के इर्द-गिर्द घूम रही है, जो भविष्य में राज्य का मुख्यमंत्री भी बन सकता है या उसकी वजह से नवीन पटनायक के २४ साल के शासन पर विराम भी लग सकता है। ये दोनों संभावनाएं इस बात पर निर्भर कर रही हैं कि मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने जो दांव खेला है, वह कितना सफल या असफल होता है। ज्ञात रहे कि ओडिशा में लोकसभा के साथ ही विधानसभा के चुनाव भी हो रहे हैं और यह तमिलनाडु में जन्मे ओडिशा कैडर के पूर्व आईएएस अधिकारी वीके पांडियन के इर्द-गिर्द घूम रहे हैं।
वीके पांडियन ने अपनी सरकारी नौकरी से इस्तीफा देकर बीजू जनता दल (बीजेडी) की सदस्यता ग्रहण की और इस समय वह अपनी पार्टी के स्टार प्रचारक व मुख्य योजनाकार हैं। उन्हें नवीन पटनायक के राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में देखा जा रहा है। संभवत: यही कारण है कि पांडियन को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह, बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा से लेकर कांग्रेस के नेता राहुल गांधी तक सभी विपक्षी नेता अपनी आलोचनाओं का मुख्य निशाना बनाए हुए हैं। यह सवाल उठाए जा रहे हैं कि अगर भुवनेश्वर में बीजेडी सत्ता में लौटती है तो राज्य की कमान एक गैर-उड़िया व्यक्ति के हाथ में चली जाएगी। प्रश्न ‘ओडिया अस्मिता’ के ‘खतरे’ में पड़ने की भी है कि ओड़िया भाषा के नाम पर गठित राज्य में एक तमिल-भाषी मुख्यमंत्री वैâसे बन सकता है? दूसरी तरफ से सवाल यह है कि जो लोग इस बात पर खुश होते हैं कि भारतीय मूल के ऋषि सुनक इंग्लैंड के प्रधानमंत्री हैं, वह यह आपत्ति वैâसे कर सकते हैं कि भारत के एक राज्य का व्यक्ति भारत के दूसरे राज्य का मुख्यमंत्री क्यों नहीं बन सकता? क्या संविधान में इस बात पर कोई रोक है? नहीं। तो फिर गैर-जरूरी बात को मुद्दा क्यों बनाया जा रहा है?
वैसे भी फिलहाल, बीजेडी का इरादा नवीन पटनायक को नेतृत्व पद से हटाने का नहीं है। यह भी तथ्य है कि बीजेडी के जो ४० स्टार प्रचारक हैं, उनमें नवीन पटनायक के बाद पांडियन का नाम ही दर्ज है। वह पार्टी प्रत्याशियों के साथ आकर्षण का केंद्र रहते हैं, उन मीटिंग्स में भी जिनमें नवीन पटनायक मौजूद होते हैं। पांडियन ने मुख्यमंत्री का कार्यालय २०११ में नवीन पटनायक के निजी सचिव के रूप में ज्वाइन किया और अपनी असाधारण कार्य-क्षमता से उन्होंने जल्द ही मुख्यमंत्री का ध्यान आकर्षित कर लिया। उनका ‘बैकरूम बॉय’ के रूप में चयन हो गया, बीजेडी के लिए २०१४ व २०१९ के चुनावों की योजना बनाने के लिए। बीजेपी व कांग्रेस के स्थानीय नेता यह मुद्दा उठाने लगे कि मुख्यमंत्री के सचिव के रूप में पांडियन को अतिरिक्त-संविधान शक्तियां प्रदान कर दी गई हैं। ५० वर्षीय पांडियन पिछले साल अक्टूबर तक मुख्यमंत्री के सचिव थे, फिर जैसे ही उन्होंने ऐच्छिक रिटायरमेंट लेकर बीजेडी की सदस्यता ग्रहण की तो उनको लेकर ‘बाहरी’ की बातें उठने लगीं, लेकिन इसकी पांडियन को कोई परवाह नहीं है। वह कहते हैं, ‘मैं जन्म से भारतीय हूं और श्वास से ओड़िया। मेरे बच्चों की मातृभाषा ओड़िया है और ओडिशा मेरी कर्मभूमि है।’
नवीन पटनायक के उत्तराधिकारी के मुद्दे पर पांडियन का कहना है कि वह उनकी त्रुटिहीन निष्ठा, ओडिशा की जनता के प्रति पूर्ण समर्पण और कड़ी मेहनत जैसे मूल्यों के उत्तराधिकारी हैं। जहां तक राजनीतिक उत्तराधिकारी की बात है तो नवीन पटनायक ने हमेशा ही कहा है कि वह ओडिशा के लोग तय करेंगे। साल २००० बैच के आईएएस अधिकारी पांडियन को शुरू में पंजाब वैâडर आवंटित किया गया था, लेकिन ट्रेनिंग के कुछ ही माह के भीतर उन्होंने उसे ओडिशा वैâडर में तब्दील करा लिया, क्योंकि उन्होंने २०००-बैच ओडिशा वैâडर की एक अन्य आईएएस अधिकारी सुजाता राऊत (अब सुजाता आर कार्तिकेयन) से शादी कर ली थी। सुजाता ओडिशा के केंद्रपाड़ा जिले के एक गांव की हैं। चुनाव आयोग के निर्देश पर उन्हें हाल ही में राज्य के वित्त विभाग में ट्रांसफर कर दिया गया था, जो कि एक ऐसा गैर-चुनावी पद है, जिसमें पब्लिक डीलिंग नहीं है। यह ट्रांसफर तथाकथित पोल कोड उल्लंघन के तहत किया गया। जनता के बीच नवीन पटनायक ढीले सफेद कुर्ते पायजामे व चप्पलों में दिखाई देते हैं। अपने ‘गुरु’ की तरह पांडियन भी पब्लिक में पूरी आस्तीनों की सफेद कमीज में दिखाई देते हैं, जिसे वह अपनी पतलून से बाहर ही रखते हैं, जो कि अमूमन ग्रे रंग की होती है।
ध्यान रहे कि जब मार्च में बीजेपी व बीजेडी के बीच चुनावी समझौते पर वार्ता हो रही थी, तो बीजेडी की तरफ से मुख्य वार्ताकार पांडियन ही थे और उन्होंने नई दिल्ली के अनेक दौरे किए थे। ओडिशा की राजनीति में पांडियन के निरंतर बढ़ते वर्चस्व पर केंद्रीय मंत्री व ओडिशा में बीजेपी के चेहरे धर्मेंद्र प्रधान का कहना है कि मुद्दा किसी विशिष्ट व्यक्ति का नहीं है, बल्कि नवीन पटनायक के नेतृत्व में स्थापित प्रक्रियाओं के ध्वस्त हो जाने का है। उनके अनुसार, ‘लोकतांत्रिक मूल्यों को एक किनारे कर दिया गया है और ओडिशा की अस्मिता को अनदेखा किया गया है। नवीन पटनायक व बीजेडी को जो मैंडेट दिया गया था, उसे एक तरफ कर दिया गया है, एक गैर चुने हुए व्यक्ति को पॉवर ट्रांसफर करके।’ ‘ओडिशा अस्मिता’ के मुद्दे पर बीजेपी उम्मीद कर रही है कि वह न सिर्फ ओडिशा में अपनी पहली सरकार बना लेगी, बल्कि २०१९ में जो उसे लोकसभा की ८ सीटें मिली थीं, उनमें भी इजाफा कर लेगी। तब बीजेडी ने १२ लोकसभा सीटें जीती थीं और कांग्रेस ने एक। विधानसभा में बीजेडी को ११३ सीटें, बीजेपी को २३, कांग्रेस को ९ और अन्य को २ सीट मिली थीं।
इस बार चुनाव कठिन व त्रिकोणीय है। ऊंट किस करवट बैठेगा, यह तो ४ जून को ही मालूम होगा, लेकिन जमीन पर घूमने के बाद अनुमान यही है कि ७७ वर्षीय नवीन पटनायक, जो २००० से लगातार मुख्यमंत्री हैं, को छठा टर्म भी मिल जाएगा और अगर ऐसा होता है तो वह कुछ ही माह के भीतर राज्य के सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहनेवाले व्यक्ति बन जाएंगे। पांडियन को बैकरूम बॉय से स्टार प्रचारक की भूमिका देकर नवीन पटनायक ने सोच-समझकर खतरा मोल लिया है। अगर बीजेडी का प्रदर्शन अच्छा रहता है तो पांडियन को ‘वैधता’ मिल जाएगी और उनका कद बढ़ जाएगा। अगर इससे उल्टा होता है तो सारा दोष पांडियन पर जाएगा, क्योंकि नवीन पटनायक ने पहली बार मुख्यमंत्री बनने के बाद कभी चुनाव नहीं हारा है। वह इस समय दो विधानसभा क्षेत्रों से चुनाव लड़ रहे हैं- हिंजिली व कांताबंजी। जीत के बाद वह एक सीट पांडियन के लिए छोड़ सकते हैं। पांडियन ‘बाहरी’ व्यक्ति हैं या नहीं, यह उन्होंने जनता पर छोड़ दिया है, लेकिन वह कहते हैं कि बीजेपी को ‘ओड़िया अस्मिता’ पर बोलने का हक नहीं है, क्योंकि उसने बीजू पटनायक को भारत रत्न के योग्य नहीं समझा और ओडिशा के १८१७ के पाइका विद्रोह को भी मान्यता प्रदान नहीं की। बहरहाल, मुफ्त रेवड़ियों से संतुष्ट मतदाताओं को इस बात से अंतर नहीं पड़ता कि पांडियन कहां से हैं और राजनीतिक दृष्टि से जागृत व्यक्तियों की संख्या हमेशा कम होती है।
(लेखक सम-सामयिक विषयों के विश्लेषक हैं)