मुख्यपृष्ठस्तंभसंविधान निर्माण में जैन समाज का योगदान : एक प्रेरणादायक अध्याय

संविधान निर्माण में जैन समाज का योगदान : एक प्रेरणादायक अध्याय

भारतीय संविधान का निर्माण एक ऐतिहासिक प्रक्रिया थी, जिसमें विभिन्न विचारधाराओं और समुदायों के प्रतिनिधियों ने योगदान दिया। यह सही है कि डॉ. भीमराव आंबेडकर को संविधान के मुख्य शिल्पकार के रूप में व्यापक रूप से सम्मानित किया गया है, जो उनकी अद्वितीय योग्यता और सामाजिक न्याय के प्रति उनके संघर्ष का प्रतीक है, लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि संविधान निर्माण में जैन समाज के विद्वानों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही। संविधान सभा में 299 सदस्य थे, जिनमें से 6 सदस्य जैन समुदाय से थे। इन विद्वानों ने गहन विचार-विमर्श, बहस और अपने अमूल्य सुझावों के माध्यम से संविधान निर्माण की प्रक्रिया में अपनी छाप छोड़ी।
जैन समाज से संविधान सभा में शामिल इन प्रमुख विद्वानों में रतनलाल मालवीय (मध्य प्रदेश), अजित प्रसाद जैन (उत्तर प्रदेश), कुसुमकांत जैन (मध्य प्रदेश), भवानी अर्जुन खीमजी (गुजरात), बलवंतसिंह मेहता (राजस्थान) और चिमनभाई शाह (सौराष्ट्र, गुजरात) के नाम उल्लेखनीय हैं। इनकी सहभागिता केवल सांकेतिक नहीं थी, बल्कि उन्होंने संविधान की धाराओं और मूल सिद्धांतों के निर्माण में अहम भूमिका निभाई। जैन समाज की इस भागीदारी पर गर्व करना न केवल समुदाय का अधिकार हैं, बल्कि यह भारत के बहुलतावादी समाज के लिए भी प्रेरणा हैं।
संविधान में जैन संस्कृति की झलक स्पष्ट रूप से दिखती है। इसके हस्तलिखित संस्करण के पृष्ठ 63 पर भगवान महावीर का चित्र अंकित हैं, जो उनके अहिंसा और सत्य के आदर्शों का प्रतीक हैं, संविधान के प्रथम पृष्ठ पर मोहनजोदड़ो की बैल की सील को चित्रित किया गया है, जो प्राचीन भारतीय सभ्यता की प्रतीक है। महात्मा गांधी की दांडी यात्रा के चित्र में सरलादेवी साराभाई जैसी जैन महिलाओं के नेतृत्व को दर्शाया गया है, जो स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं के योगदान को रेखांकित करता है।
जैन धर्म के सिद्धांत—अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह और अनेकांतवाद—भारतीय संविधान की मूल भावना के साथ गहराई से जुड़े हुए हैं। संविधान ने सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में अहिंसा और समानता को प्राथमिकता दी, जो जैन धर्म की शिक्षा का मूल हैं। अपरिग्रह और समानता के सिद्धांत संसाधनों के समान वितरण और समाजवादी मूल्यों को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण हैं। वहीं, अनेकांतवाद सहिष्णुता और विविध दृष्टिकोणों को स्वीकारने की प्रेरणा देता है, जो संविधान की बहुलता और विविधता के आदर्शों का आधार है।
जैन समाज ने संविधान निर्माण में जो योगदान दिया वह न केवल समुदाय के लिए, बल्कि पूरे राष्ट्र के लिए गर्व का विषय है। यह इस बात का प्रमाण है कि जैन समाज न केवल अपनी धार्मिक और सांस्कृतिक धरोहर का संरक्षक है, बल्कि वह राष्ट्रीय निर्माण और प्रगतिशील सोच में भी अग्रणी भूमिका निभाता है। आज जैन समाज की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने इतिहास और योगदान को आत्मसात करे और संविधान के आदर्शों—अहिंसा, समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व—पर चलकर राष्ट्र को सशक्त और समृद्ध बनाए।
संविधान केवल एक दस्तावेज नहीं है, बल्कि यह भारत की आत्मा है। इसे पढ़ना और पूजना पर्याप्त नहीं है, बल्कि इसके मूल सिद्धांतों को जीवन में उतारकर एक तर्कसंगत, न्यायपूर्ण और सशक्त राष्ट्र का निर्माण करना ही इसका वास्तविक सम्मान होगा। जैन समाज और भारतीय संविधान का यह रिश्ता हमें याद दिलाता है कि जब भी राष्ट्र निर्माण की बात आई है, जैन समुदाय ने हमेशा अपनी विचारशीलता और नैतिकता से प्रेरणा दी है।
—अर्थशिल्पी, भरतकुमार सोलंकी

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