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देश-परदेश : पाकिस्तान को महंगा पड़ रहा है खूंखार तालिबान से पंगा…!!

विजय कपूर

…छत्ते में उंगली
आंतरिक अशांति और आर्थिक परिस्थितियों से जूझ रहे पाकिस्तान ने जब अपनी अवाम को कुछ बहादुराना फीलगुड कराने के लिए पिछले दिनों अफगानिस्तान में एयर स्ट्राइक करके दो दर्जन से ज्यादा अफगान नागरिकों को मार दिया, जो उसके मुताबिक तहरीक-ए-तालिबान के आतंकी थे और उसकी संप्रभुता के साथ खिलवाड़ कर रहे थे, जबकि अफगानिस्तान का कहना है कि पाकिस्तान ने अपनी हवाई सेना की ताकत की धौंस जमाने के लिए अफगानिस्तान के आम लोगों को निशाना बनाया है ताकि अपनी आंतरिक परेशानियों से लोगों का ध्यान बंटा सके। बहरहाल, पाकिस्तान की एयर स्ट्राइक को अपने देश पर हमला मानते हुए, अफगानिस्तान में सत्तारूढ़ तालिबान ने पाकिस्तान के विरुद्ध जबर्दस्त पलटवार किया और सरहदी चौकियों में तैनात १९ पाक रेंजर्स को मार गिराया। यही नहीं दुनिया की पांचवीं सैन्य शक्ति माने-जानेवाले पाकिस्तान पर अफगानिस्तान ने जिस तरह से हमला करके उसकी दो सीमा चौकियों पर कब्जा कर भी लिया है, उससे अंदाजा लग रहा है कि दोनों के बीच किस हद तक जंग भड़क चुकी है।
सवाल है अगर यह संघर्ष तुरंत नहीं थमता (…और जिस तरह से अफगानिस्तान भड़का हुआ है, उससे लगता नहीं है कि यह बिना पाकिस्तान के कूटनीतिक तौर पर झुके थमेगा) तो ये कहां जाकर रुकेगा, कोई नहीं जानता। भले कागजों और आंकड़ों में पाकिस्तान, अफगानिस्तान की कोई तुलना ही न हो, लेकिन व्यावहारिक सच्चाई और हाल के दशकों में दुनिया की दो-दो सैन्य महाशक्तियों के विरुद्ध तालिबान की जीवटता को ध्यान में रखें तो उसके पास भले पुराने पड़ चुके हथियार हों, लेकिन उनका दुस्साहस और उनमें आत्मघात का जो जुनून है, उसके सामने पाकिस्तान का टिकना मुश्किल होगा। गौरतलब है कि तालिबान ने पहले सोवियत संघ और फिर दुनिया की सबसे आधुनिक और ताकतवर माने जानेवाली अमरीकी सेना को भी इसी फिदाइन जुनून के सामने घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था। अंतत: सैन्य महाशक्तियों को अफगानिस्तान छोड़कर जाना पड़ा। तालिबान के खाते में यह इतिहास उसके आत्मविश्वास को और भी खूंखार बना देता है इसलिए अगर कहा जाए कि पाकिस्तान ने तालिबानी बर्र के छत्ते में उंगुली देकर उसे उकसा दिया है और उसका यह उकसना अब पाकिस्तान के लिए भारी पड़ सकता है तो अतिशयोक्ति न होगी।
दोगला पाकिस्तान
गौरतलब है कि एक लंबे समय तक पाकिस्तान ने तालिबानियों का मीडिएटर बनकर अमेरिका से अच्छे खासे डॉलर कमाता रहा है, क्योंकि अमेरिका के लिए पाकिस्तान ने अफगानिस्तान में पहले सोवियत संघ की सेनाओं से तालिबान को लड़ाने का ठेका ले रखा था और फिर जब ९/११ के बाद तालिबान अमरीका का दुश्मन बन गया तो तालिबानियों को खत्म करने में मदद करने के लिए भी पाकिस्तान, अमरीका को चूसता रहा। सालों-साल कभी तालिबान को, कभी सोवियत फौज को ब्लैकमेलिंग का जरिया बनाकर पाकिस्तान ने लंबे समय तक न सिर्फ तालिबान जैसे फुफकारते नागों का पालन-पोषण किया है, बल्कि उनके शुभचिंतक के रूप में भी अपने को पेश करता रहा। लेकिन कहते हैं कि मूर्ख कोई नहीं होता, भले कोई मूर्खता की हरकतें ही क्यों न करता हो। तालिबान भी नहीं था। पाकिस्तान को गलतफहमी थी कि उसकी राजनीति को तालिबान कभी समझ नहीं सकता, लेकिन यह उसकी गलती थी। तालिबान, पाकिस्तान की दोहरी और जहरीली भूमिकाओं को बहुत अच्छे तरीके से समझता था इसलिए जब वह सोवियत संघ और अमरीका को खदेड़ने में सफल रहा, तब अपना फोकस पाकिस्तान की तरफ कर दिया और पाकिस्तान को बताया कि वह जिस शरिया का शासन स्थापित करने के लिए उसे तैयार कर रहा है, वही शरिया का शासन क्यों न खुद पाकिस्तान पर लागू किया जाए और जब पाकिस्तान इस पर तालिबान को अपनी ताकत के जरिए धमकाने की कोशिश की तो पता चला कि लंबे समय से उसने तालिबान नामक जो इंसानी बम तैयार किए हैं, अब वो उसे ही शिकार बनाने के लिए पूरी तरह से तैयार हैं।
भस्मासुर तालिबान
पाकिस्तान के अंदर तहरीक-ए-तालिबान (टीटीपी) की २००७ में स्थापना हुई और इस कट्टर सुन्नी समूह ने घोषणा कर दी कि पाकिस्तान में वह इस्लामी यानी शरिया का शासन लागू करके रहेगा। हालांकि, तकनीकी तौर पर टीटीपी और अफगान-तालिबान के बीच कोई सीधा रिश्ता नहीं है। ये दोनों अलग-अलग संगठन हैं, लेकिन टीटीपी तालिबान की विचारधारा से प्रभावित हैं और अफगानिस्तान में सत्तारूढ़ तालिबान टीटीपी को संरक्षण देता है इसलिए जब टीटीपी पर हमला करने के बहाने पाकिस्तान, अफगानिस्तान में घुसकर टीटीपी के आंतकियों को निशाना बनाने की बात कहता है तो सत्तारूढ़ अफगानी-तालिबान इसे अपनी संप्रभुता के खिलाफ हमला मानते हैं और इस तरह न चाहते हुए भी वे टीटीपी के साथ खड़े हो जाते हैं। साल २००७ में विभिन्न चरमपंथी गुटों को मिलाकर बना तहरीक-ए-तालिबान का लक्ष्य वास्तव में पाकिस्तान की सरकार को गिराना और शरिया के नाम पर इस देश में तालिबान का शासन लागू करना ही और इसके लिए वो पिछले डेढ़ दशकों से पाकिस्तान पर बार-बार दिल दहलाने वाले चरमपंथी हमले करता रहा है। यह खासतौर पर पाकिस्तान की सेना, पुलिस, यहां के स्कूलों और सरकारी संस्थानों को अपने हमले का निशाना बनाता है, ताकि पाकिस्तान की ताकत को कमजोर किया जाए। ऐसे में सवाल है कि क्या पाकिस्तान, जिस तालिबान नामक भस्मासुर को कभी अपनी सहूलियत के लिए खड़ा किया था, अब वह उसी के अस्तित्व के लिए संकट नहीं बन गया? जी हां, ऐसा ही है।

हालांकि, जैसा कि हमने पहले ही कहा है कि आंकड़ों और आधुनिक पैमानों में पाकिस्तान और तालिबान की कोई तुलना ही नहीं है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अफगान-तालिबान के पास डेढ़ लाख ऐसे आत्मघाती लड़ाके हैं, जो किसी भी तरह के दुस्साहस से कभी बाज नहीं आते। वैसे भी अफगान शासन ने हाल में अपनी इस लड़ाकू सेना में ५० हजार से ज्यादा नए रंगरूटों को जोड़ने की योजना का खुलासा किया था और अब तक ये इसके साथ जुड़ भी चुके हैं इसलिए अगर पाकिस्तान को लगता है कि वह तालिबानों की खूंखार आक्रामकता का अपनी राजनीतिक तिकड़मबाजी के लिए, दूसरे देशों के लिए इस्तेमाल भर कर सकता है और उसके लिए वे कभी खतरनाक नहीं साबित होंगे तो ये उसका दिवास्वप्न है।
उल्टा पड़ा दांव
हाल के दिनों में जिस तरह से एक के बाद एक अफगानिस्तान में सत्तारूढ़ तालिबान सरकार ने पाकिस्तान की आलोचना की है, साथ ही उसकी किसी भी किस्म की हरकत का दोगुनी ताकत से पलटवार किया है, उससे साफ है कि पाकिस्तान ने शांति के जहरीले संपोलों को जिस तरह दूध पिलाकर दूसरों के लिए खौफनाक बनाया था, अब जब पाकिस्तान और तालिबान के बीच जंग के हालात बन गए हैं तो तालिबानों का सारा का सारा जहर अब पाकिस्तान को झेलना पड़ रहा है। एक के बाद एक पाक वायुसेना ने जिस तरह पिछले महीने अफगानिस्तान के चार इलाकों में एयर स्ट्राइक किया, अब उसके लिए यह दुस्साहस जानलेवा बन चुका है। जुनूनी तालिबानों ने पाकिस्तानी सेना के नाक में दम कर दिया है। पिछले एक हफ्ते में टीटीपी की तालिबान आर्मी ने तो हमला किया ही है, अफगानिस्तान में सत्तारूढ़ तालिबान की सेना ने भी दो दर्जन से ज्यादा पाकिस्तानी सैनिकों की हत्या करके और अफगानिस्तान से सटे बॉर्डर की दो चौकियों पर कब्जा करके जता दिया है कि किस तरह से टीटीपी पर हमला करने का दांव उल्टा पड़ गया है।
टीटीपी के पास ३० हजार हथियारबंद आतंकी हैं, जो हर पल अपनी जान हथेली पर रखकर इंसानी बम की तरह अपने लक्ष्य के खात्मे के लिए तैयार रहते हैं। जब से इन्हें खुलकर अफगान सरकार का समर्थन मिल गया है, तब से इनकी ताकत कई गुना ज्यादा बढ़ गई। अफगानिस्तान में सत्तारूढ़ तालिबान इसलिए भी टीटीपी की मदद करने के लिए हर पल तैयार रहता है, क्योंकि टीटीपी ने भी तो उन्हें अमेरिकी सेना के खिलाफ लड़ाई में खुलकर साथ दिया था इसलिए पाकिस्तान को अगर इस चक्रव्यूह में नहीं उलझना तो तालिबान के साथ जबरदस्त कूटनीतिक रास्ता निकालना होगा और उसके साथ डबल गेम खेलने से भी बाज आना होगा।
(लेखक सम-सामयिक विषयों के विश्लेषक हैं)

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