संजय श्रीवास्तव
ब्रिटेन के आम चुनावों में भारतीय मूल के २९ सांसदों का चुना जाना ऐतिहासिक है। भले ही भारतवंशी प्रधानमंत्री ऋषि सुनक की बुरी तरह हुई हार निराश करने वाली हो, पर यह परिदृश्य उम्मीद जगाने वाला है कि आनेवाले समय में न सिर्फ ब्रिटेन में भारतवंशी सत्ता के शीर्ष पर होंगे, बल्कि दुनिया के तमाम देशों में भी राजनीतिक तौर पर उनकी प्रभावी उपस्थिति होगी। फिलहाल, ब्रिटेन की संसद में प्रवेश पाने वाले भारतीय मूल के सांसदों से हमारी क्या अपेक्षा हो सकती है और उनकी आगे की राजनीति क्या होगी, इस पर विचारना समीचीन होगा।
ब्रिटेन के चुनावों में भारतीय मूल के २९ सांसद जीते हैं, पिछली बार उनकी संख्या १५ थी। पांच साल में १५ से २९ की संख्या पर पहुंचना मायने रखता है। यह बढ़त बताती है कि भारतीय मूल के नेता वहां किस तरह से अपना जनाधार बढ़ा रहे हैं। ब्रिटेन में सत्ता संघर्ष अमूमन लेबर और कंजरवेटिव पार्टियों के बीच ही रहता है। तीसरी मुख्य पार्टी लिबरल डेमोक्रेट है। ग्रीन पार्टी और दूसरे दलों के अलावा निर्दलीय भी चुनाव लड़ते हैं। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि भारतीय मूल के ये नेता किसी एक विचारधारा या दल तक सीमित नहीं हैं, वे सभी दलों के अलावा निर्दलीय भी जीते हैं। जीते २९ सांसदों में से १९ सत्ताधारी लेबर पार्टी से, ७ मुख्य विपक्षी कंजरवेटिव पार्टी से, १ लिबरल डेमोक्रेट्स से और २ निर्दलीय हैं।
जिन निर्वाचन क्षेत्रों में भारतीय मूल के मतदाताओं की संख्या अधिक है उन्हें कुछ ज्यादा मत मिलना समझा जा सकता है, लेकिन जहां ऐसी स्थिति नहीं थी, वहां भी ब्रिटिश मूल के उम्मीदवारों के समक्ष भारतीय मूल के जन प्रतिनिधियों का सीट जीतना, उनकी जनप्रियता और स्वीकार्यता का संकेत है। ६५० सीटों में से करीब ५० सीटों पर दक्षिण एशियाई लोगों का पूरा दबदबा है, यों तो पाकिस्तानी, श्रीलंकाई, चीनी मूल के नेता भी यहां हैं, मगर भारतीयों का वर्चस्व ज्यादा है। १३ सांसद तो पंजाबी मूल के ही हैं। लेबर पार्टी ने अपने १९ भारतीय मूल के सांसदों में से एक विगान से चुनकर आयी ४४ साल की लिसा नंदी को संस्कृति मंत्री बनाया है, वह मीडिया और खेल विभाग देखेंगी। संभव है कि भविष्य में इन सांसदों में से कुछ को मंत्री पद या उससे इतर महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां मिलें। सीमा मल्होत्रा, प्रीत कौर गिल जैसी कुछ महिला सांसद काफी अनुभवी हैं और शैडो मंत्रालय में भी रह चुकी हैं। कुछ ऐसे सांसद भी हैं जो पहली बार जीतकर आये हैं, लेकिन उनकी चमक तेज है। ब्रिटिश सरकार उनकी क्षमता, प्रतिभा को परख सकती है।
सियासत संभावनाओं का खेल है संभव है कि कल कोई फिर भारतीय मूल का नेता ऋषि सुनक की तरह ब्रिटिश सरकार में सर्वोच्च पद पर पहुंचे, प्रधानमंत्री बने। भारतीय मूल के नेताओं की सफलता और स्वीकार्यता जिस तरह से वहां की जनता और सभी दलों में बन रही है, उसे देखते हुए ये कभी भी संभव हो सकता है। फिलहाल तो स्थिति यह है कि प्रधानमंत्री ऋषि सुनक की करारी हार से आम भारतीयों को दुःख हुआ है। देश और ब्रिटेन में जो भाजपा के समर्थक हैं, मूलत: कंजरवेटिव पार्टी के समर्थक माने जाते हैं, क्योंकि उसकी राजनीतिक शैली तकरीबन वही है। ब्रिटेन में रहने वाले १८ लाख से ज्यादा भारतीय मूल के मतदाताओं में से ४२ फीसद से ज्यादा हिंदू हैं, उनका और यहां के युवा वर्ग का झुकाव कंजरवेटिव की ओर माना जाता रहा है। कंजरवेटिव अपने स्पष्ट मुस्लिम विरोध के लिए भी जाने जाते रहे हैं। लेबर पार्टी के समर्थक सिखों की आबादी हिंदुओं के मुकाबले कम है, मुसलमान भी बंटे हुए हैं फिर भी लेबर पार्टी ने कंजरवेटिव का सूपड़ा साफ कर दिया।
ब्रिटेन की सत्ता पर काबिज लेबर पार्टी अतीत में भारत की आजादी की समर्थक थी, तत्कालीन प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली के पैâसले का कंजरवेटिव पार्टी के पूर्व पीएम विंस्टन चर्चिल ने खूब विरोध किया था। इसी वजह से ब्रिटेन में रहने वाले भारतीय लेबर पार्टी के समर्थक बने। अभी हाल तक, २०१० में ६१ प्रतिशत भारतवंशियों ने लेबर पार्टी को वोट दिया था, पर २०१५ में जब लेबर नेता जेरेमी कॉर्बिन ने कश्मीर पर विवादित बयान दिया, अनुच्छेद ३७० खत्म करने पर कश्मीर पर एक आपातकालीन प्रस्ताव लाकर बोले कि कश्मीरियों को स्वनिर्णय का अधिकार मिलना चाहिए। ब्रिटिश इंडियन हिंदू मैटर नाम के एक संगठन ने उनके विरुद्ध एंटी हिंदू, एंटी इंडिया का अभियान चलाया। नतीजा यह हुआ कि २०१९ में यह समर्थन घट कर ३० फीसद पर पहुंच गया, कंजर्वेटिव पार्टी का हिंदू कार्ड काम कर गया और उसने २४ प्रतिशत वोट कब्जा लिया। पर इस बार प्रधानमंत्री होते हुए मंदिरों में जाना, हर मंगलवार घर पर सामूहिक हनुमान चालीसा पाठ का आयोजन, हिंदू, हिंदुत्व, सनातन की बात करते रहने के साथ तमाम तीज-त्योहारों पर हिंदू जनता का जुटान, भोज कराने की रणनीति काम न आई। प्रवासी भारतीयों के गर्व, सुनक यॉर्कशायर में रिचमंड और नार्थार्ल्टन के उस निर्वाचन क्षेत्र से जहां वे खुद रहते हैं, भारतीयों की भारी आबादी है, अपनी सीट दो दौर में पीछे रहने के बाद बमुश्किल २३,०५९ वोटों से बचा पाए। जाहिर है मतदाताओं ने धार्मिक और भावनात्मक अपील से ज्यादा कामकाज को तरजीह दी।
निस्संदेह भारतवंशी सांसदों की जीत हम भारतीयों को आत्मगौरव और प्रसन्नता देती है। पर हमें इन सांसदों से कोई अपेक्षा पालना उचित नहीं कि वे ब्रिटेन में रहने वाले भारतीयों की मुखर आवाज बनेंगे अथवा ब्रिटेन-भारत के बीच संबंधों में लागू या आने वाली नीतियों को प्रभावित कर सकेंगे। ६५० सांसदों की संसद में १९ या ७ सांसदों का संख्या बल नगण्य है। भारत के संदर्भ में वही नीतियां प्रभावी रहेंगी जो प्रधानमंत्री कीर स्टार्मर तय करेंगे। विपक्षी भारतवंशी सांसदों से किसी प्रखर प्रतिरोध की अपेक्षा भी बेमानी है। स्टार्मर ने अपने मंत्रिमंडल में मात्र एक भारतवंशी नंदी को ही जगह दी है और नंदी के साथ पाकिस्तानी मूल के भारत विरोधी शबाना महमूद को भी न सिर्फ स्थान दिया है, बल्कि महत्वपूर्ण न्याय मंत्रालय सौंपा है। इस बात को भी ध्यान में रखना होगा कि कम संख्या के बावजूद पाकिस्तानी मूल के नेताओं ने भी १५ सीटें जीती हैं, लंदन का मेयर भी एक पाकिस्तानी मूल के नेता ही हैं।
असल में ब्रिटेन की समावेशी नीति ने सभी देशों के लोगों को वहां बसने के अलावा राष्ट्रीय राजनीति में हिस्सा लेने के समान अवसर दिए हैं। उसी का परिणाम है कि भारतवंशी और दूसरे देशों के लोग वहां की संसद में पहुंच पा रहे हैं। ब्रिटेन की जनता ने भी कुछ अपवादों को छोड़कर ज्यादातर गैर विभेदकारी नीति ही अपनाई है, जाहिर है कि भारतवंशी सांसदों की जीत में ब्रिटेनवासियों के भी वोट हैं। जहां विपक्षी कंजरवेटिव पार्टी के जीते सांसदों के सामने अगले पांच सालों के लिए इस बात की कड़ी चुनौती है कि वे अपने खिसके वोट बैंक और बाकी मतदाताओं का विश्वास फिर से कैसे प्राप्त करें, सुनक की दशा से सीख लें अपनी सियासी रणनीति में क्या बदलाव लाएं। अपने छिटके हुए युवा और हिंदू मतदाताओं को बटोरने के लिए क्या नए उपक्रम करें? वहीं लेबर पार्टी के भारतवंशी सांसदों के सामने भी कम सांसत नहीं है। उम्मीदों के बोझ तले दबी सरकार को इस जनसमर्थन को पांच बरस सहेजना कठिन रहेगा। महंगाई और बेरोजगारी का इन सांसदों का अपने मतदाताओं को क्या जवाब होगा? लेबर पार्टी के पक्ष में कई दशकों तक वोट करने वाले भारतीय मूल की कारोबारी समुदाय का झुकाव पिछले कुछ सालों में हिंदूवादी, राष्ट्रवादी कंजर्वेटिव पार्टी की तरफ हो गया था, अब जब इस बार लेबर पार्टी सत्ता में आ चुकी तो ये कम्युनिटी चिंतित है और कई तो दुबई जैसे देशों का रुख कर रहे हैं। लोगों को आशंका है कि खस्ताहाल अर्थव्यवस्था को देखते हुए लेबर पार्टी शिक्षा पर २० फीसद टैक्स लगा देगी। लेबर के लिए भारत के साथ दोस्ताना संबंध बनाए रखना होगा, जबकि सुनक के जाने में यह भी एक मुद्दा था। रवांडा प्रवासी योजना रद्द करने के बावजूद इमिग्रेशन एक बड़ा मुद्दा बना रहेगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार हैं)