मुख्यपृष्ठस्तंभसम-सामयिक : सुप्रीम कोर्ट का दुर्लभ स्वत: संज्ञान ...क्या कोलकाता केस सुरक्षा...

सम-सामयिक : सुप्रीम कोर्ट का दुर्लभ स्वत: संज्ञान …क्या कोलकाता केस सुरक्षा की नजीर बनेगा?

डॉ. अनिता राठौर

 

कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज व अस्पताल में एक पीजीटी डॉक्टर की भयावह हत्या-बलात्कार मामले का सुप्रीम कोर्ट ने १८ अगस्त २०२४ को स्वत: संज्ञान लिया है। भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई चंद्रचूड़, न्यायाधीश जेबी पारदीवाला व न्यायाधीश मनोज मिश्रा की खंडपीठ २० अगस्त २०२४ की सुबह से इस मामले में प्रक्रिया आरंभ करेगी और इससे संबंधित अन्य बातों पर भी गौर करेगी यानी डॉक्टरों की सुरक्षा पर भी विचार किया जा सकता है। ३१ वर्षीया पीजीटी डॉक्टर के विरुद्ध वहशियाना हादसा ९ अगस्त २०२४ को हुआ था। इसके खिलाफ व ‘रिक्लेम द नाइट’ मार्च की एकजुटता में जब महिला डॉक्टरों व छात्राओं ने रैली की योजना बनाई तो १४ अगस्त २०२४ की रात को भीड़ ने आरजी कर अस्पताल पर हमला किया। इस वारदात ने भी सुप्रीम कोर्ट को मजबूर किया कि वह इस मामले को अपने हाथ में ले।
यह सुप्रीम कोर्ट के लिए दुर्लभ ही है कि उसने ऐसे मुद्दे का स्वत: संज्ञान लिया है, जिसमें संबंधित हाई कोर्ट (कलकत्ता) पहले से गंभीर नोट ले चुका कि केस की जांच सीबीआई को सौंप दी है और त्यागपत्र दे चुके कॉलेज के प्राचार्य को कोई अन्य पद देने पर रोक लगा दी है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस घटना का स्वत: संज्ञान लेना इस तथ्य का संकेत है कि वह उन सिस्टमिक लूपहोल्स की जांच करे, जिन पर लंबे समय से लापरवाही बरती जा रही है और जिनके कारण इस किस्म की त्रासदीपूर्ण घटनाएं आए दिन होती रहती हैं। कोलकाता हॉरर की पीड़िता को न्याय मिलना चाहिए, यह बहस या इंकार का विषय है ही नहीं। समस्या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के सेलेक्टिव होने से है कि वह उसी घटना को सुर्खी बनाता है व प्राइम टाइम डिबेट का विषय, जो गैर-बीजेपी शासित प्रदेश में घटी हों या जिसमें धर्म का कोई एंगल हो और अन्य जगहों की क्रूर घटनाओं पर ऐसे चुप्पी साध लेता है, जैसे उसे सांप सूंघ गया हो।
कोलकाता घटना के अगले दिन ही उत्तराखंड में एक नर्स का बलात्कार करने के बाद बेरहमी से उसका कत्ल कर दिया गया। अवाम ने अपराध का विरोध व न्याय की मांग करते हुए प्रदर्शन भी किए, लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर कोई डिबेट देखने को नहीं मिली। अगर १८ अगस्त २०२४ की ही कुछ घटनाओं का जिक्र किया जाए तो देहरादून आईएसबीटी में खड़ी एक बस में मुरादाबाद की एक १६ वर्षीया किशोरी के साथ पांच दरिंदों ने सामूहिक बलात्कार किया, जिनमें से तीन सरकारी कर्मचारी हैं। मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले में भी एक किशोरी के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया और पीड़िता को वीडियो वायरल करने की धमकी दी गई। ऐसी दुखद घटनाएं लगभग रोज ही रिपोर्ट होती हैं, लेकिन इन पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की षड्यंत्रकारी खामोशी के कारण महिला सुरक्षा का मुद्दा इतनी मजबूती से नहीं उठ पाता कि सरकारें सख्त कार्यवाही करने व घर से कार्यस्थल तक महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए मजबूर हो जाएं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा सेलेक्टिव घटना को उठाने से मामला राजनीति की भेंट चढ़ जाता है और तू-तू, मैं-मैं के अतिरिक्त कुछ नहीं होता। सेलेक्टिव केस उठाने से सड़कों पर शोर मचता है, कानून भी बन जाते हैं (जैसा कि निर्भया के मामले में हुआ), कभी-कभार सरकारें भी बदल जाती हैं, लेकिन महिलाएं तो फिर भी असुरक्षित ही रहती हैं।
भारत की समृद्धि के संदर्भ में ऐसा कोई संभावित मार्ग नहीं है, जो महिला-सुरक्षित-समाज से गुज़र कर न जाता हो। ‘रिक्लेम द नाइट’ में हर किसी को मार्च करने की जरूरत नहीं है, लेकिन हर किसी को यह समझना आवश्यक है कि महिला सुरक्षा जरूरतों को निरंतर अनदेखा करना बहुत महंगा पड़ रहा है और अगर हालात यही रहे तो मामला बद से बदतर होने में भी देर नहीं लगेगी। यौन उत्पीड़न का हर मामला कार्यबल में महिलाओं की हिस्सेदारी पर गहरी चोट होता है। कुछ दिन पहले ही आईएमएफ की गीता गोपीनाथ ने कहा था कि भारत की आर्थिक महत्वाकांक्षाएं उस समय तक पूरी नहीं हो सकतीं, जब तक कि श्रमबल में महिलाओं की हिस्सेदारी में वृद्धि नहीं होती है, जो कि सक्रियता से महिला सुरक्षा सुनिश्चित करने पर निर्भर करती है। यह क्या कम चिंताजनक है कि भारत में महिलाओं की श्रमबल में हिस्सेदारी दर वियतनाम की तुलना में भी आधी है। इससे भी खराब बात यह है कि बहुत कम महिलाओं को अपने श्रम का मेहनताना मिलता है। मसलन, अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय की २०२३ की रिपोर्ट से मालूम होता है कि केवल १७ प्रतिशत शहरी महिलाएं ही पेड कार्यबल में हैं। ग्रामीण महिलाएं तो इससे भी अधिक दयनीय स्थिति में हैं। इसका अर्थ है कि महिलाएं दुष्चक्र में फंसी हुई हैं।
वह घर पर या खेतों में या पारिवारिक इंटरप्राइजेज में काम तो करती हैं, लेकिन उसका उन्हें मेहनताना नहीं मिलता, जिससे उनकी आर्थिक व सामाजिक हैसियत में कमी आती है। पेड वर्क या उसे हासिल करने के लिए उच्च शिक्षा को अनेक कारणों से प्रोत्साहित नहीं किया जाता है, जिनमें से प्रमुख है सुरक्षा। इस पर सितम यह है कि महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए अक्सर उन्हें पिंजरे में कैद कर दिया जाता है। कानूनों व नियमों के होने के बावजूद उन पर सामाजिक पाबंदियां लगाई जाती हैं कि रात में काम नहीं कर सकतीं या जिन कामों को खतरनाक या कठिन या नैतिक दृष्टि से अनुचित समझा जाता है, उन्हें नहीं कर सकतीं। यही बातें कार्यस्थल पर महिलाओं की तरक्की में बाधक भी बनती हैं। टॉप मैनेजर बनने का अर्थ है, इन सभी बाधाओं को पार कर लेना। फिर जैसा कि गोपीनाथ कहती हैं कि महिलाओं को ‘जस्ट चिल’ के अनगिनत सुझाव दिए जाते हैं, जबकि पुरुषों के सामने ऐसा कोई सवाल नहीं होता।
हमारे पास यह जानने का कोई तरीका नहीं है कि कोलकाता में जिस पीजीटी डॉक्टर की हत्या व बलात्कार हुआ उसने नाइट ड्यूटी करने के लिए कितनी जंजीरों को तोड़ा होगा व कितनी बाधाओं को पार किया होगा, लेकिन हम यह जानते हैं कि उस दिन प्रेस कॉन्प्रâेंस में कॉलेज के प्रधानाचार्य ने उसके बारे में कहा था कि वह ‘गैर-जिम्मेदार’ थी कि रात में अकेले सेमिनार हॉल में गई। महिलाएं पिंजरे में वैâद रहने के दर्द को अच्छी तरह से समझती हैं कि पिंजरा निरंतर दमनकारी होता जाता है और उसकी सुरक्षा दर शून्य है। यह अच्छा है कि महिला सुरक्षा के सवाल पर अब सुप्रीम कोर्ट मंथन करेगा, लेकिन केवल कानूनों से कुछ नहीं होने जा रहा है, भले ही वह कितने ही सख्त क्यों न बना दिए जाएं और चाहे वह केंद्रीय कानून ही क्यों न हों (जिनकी आईएमए मांग कर रहा है)। बिना किसी शक-ओ-शुब्ह के महिला सुरक्षा एक जटिल सामाजिक समस्या है। इसे हल करने के लिए जहां प्रशासन का सख्त व निष्पक्ष होना आवश्यक है, वहीं पुलिस भी यह प्रचार करे कि हर जगह लगे सीसीटीवी की मदद से वह आरोपियों को पकड़ती है, वहीं महिलाओं के प्रति समाज के नजरिए में परिवर्तन भी जरूरी है।
घर, सड़क, कार्यस्थल आदि को सुरक्षित बनाओ और यौन हिंसा के दोषियों को जल्द व सख्त सजा दो।
(लेखिका शिक्षा क्षेत्र से जुड़ी हुई हैं)

अन्य समाचार