वीना गौतम
मानसून के इस मौसम में अब तक दो दर्जन से ज्यादा भू-स्खलन की घटनाएं घट चुकी हैं, लेकिन जैसी भयावह घटना २९ जुलाई २०२४ को वायनाड के चार गांवों में घटी, वैसी भयावह दुर्घटना हाल के सालों में नहीं देखी गई। सोमवार की देर रात संसद में विपक्ष के नेता राहुल गांधी के लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र रहे वायनाड में मूसलाधार बारिश के बीच चार गांव बह गए। इस बारिश में सिर्फ गांव के सभी घर ही नहीं, बल्कि सभी पुल, सड़कें और यहां तक कि गाड़ियां भी बह गईं। हद तो यह है कि कारों और दुपहिया वाहनों के साथ-साथ कहा जा रहा है कि एक बस भी बह गई। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक हाल के सालों की इस सबसे भयावह भू-स्खलन की घटना में लगभग ९० लोगों की मौत हो चुकी है। ७० लोग अस्पताल में हैं, जिनमें एक दर्जन से ज्यादा की हालत बेहद नाजुक है और ४०० से ज्यादा लोग लापता हैं। धरती के दरकने की यह घटना इसलिए और भी ज्यादा दहशतवाली हो गई, क्योंकि यह आपदा रात में २ बजे के आस-पास तब आई, जब ज्यादातर लोग घरों में सो रहे थे।
हैरानी की बात ये है कि वायनाड के जिन चार गांवों मुंडक्कई, चूरलमाला, अट्टामाला और नूलपुझा में भू-स्खलन की यह घटना हुई। पांच साल पहले साल २०१९ में भी इन्हीं गांवों में तब तक की सबसे भयावह भू-स्खलन की घटना हुई थी, जिसमें १७ लोग मारे गए थे और ५ लोग आजतक लापता हैं यानी उनके शव नहीं मिले थे। इसके बावजूद पता नहीं किस जीवटता से लोगों ने जल्द ही इस घटना को भुलाकर फिर से इन गांवों को आबाद कर दिया और पहले से कई गुना ज्यादा भयावह दुर्घटना का शिकार हो गए। साल २०१९ में जहां इन गांवों के ५२ घर पूरी तरह से तबाह हो गए थे, वहीं इस बार तो आ रही सूचनाओं के मुताबिक एक भी घर सलामत नहीं बचा। हाल के सालों में हमने ग्लोबल वॉर्मिंग का कहर, बढ़ते तापमान के रूप में तो लगातार महसूस किया है, लेकिन हमने प्राकृतिक आपदाओं की दूसरी घटनाओं पर इसे उस तरह से ध्यान नहीं दिया जैसे बढ़ते तापमान के मामले में महसूस किया। पर हकीकत यही है कि बढ़ते तापमान के साथ बाकी प्राकृतिक आपदाएं भी ग्लोबल वॉर्मिंग की तरह ही न सिर्फ संख्या में बहुत ज्यादा हो रही हैं, बल्कि असर के मामले में भी बहुत डरा रही हैं।
भू-स्खलन बारिश के दिनों की कोई नई आपदा नहीं है। खासकर उत्तराखंड के पहाड़ों, हिमाचल प्रदेश और दार्जिलिंग तथा केरल में अक्सर भू-स्खलन की घटनाएं होती रही हैं। लेकिन अगर हाल के सालों में इन घटनाओं की बढ़ती संख्या पर एक नजर डालें तो यह संख्या डराती है। पिछले दो सालों से उत्तराखंड में धरती के दरकने की घटनाओं ने तो देश ही नहीं पूरी दुनिया का ध्यान अपनी तरफ खींचा है मगर इस बारे में लोगों का ध्यान तेजी से नहीं गया कि साल २०१५ से २०२२ के बीच भारत के विभिन्न राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में भू-स्खलन की ३,७८२ घटनाएं घटी थीं, जिनमें सबसे ज्यादा २,२३९ घटनाएं अकेले केरल में घटीं और दूसरे नंबर पर सबसे ज्यादा ३७६ घटनाएं इन सात सालों में पश्चिम बंगाल में घटीं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि भू-स्खलन की भयावहता के मामले में केरल कितने अलार्मिंग स्टेज पर है। इसके बावजूद देखा गया है कि न तो हाल के सालों में केरल के भवन निर्माण प्रक्रिया को लेकर कोई खास चिंता जताई गई है और न ही दिन पर दिन बढ़ रही भू-स्खलन की घटनाओं से निपटने के लिए अतिरिक्त रूप से किसी संवेदनशील व्यवस्था के बारे में सोचा गया है।
आमतौर पर भू-स्खलन का जिक्र छिड़ने पर जो लोग इस बारे में वास्तविकता को नहीं जानते, उनके दिमाग में सबसे पहले उत्तराखंड और हिमाचल ही सर्वाधिक पीड़ित राज्यों के रूप में ध्यान में आते हैं, लेकिन केरल सबसे ज्यादा इस आपदा से पीड़ित है। दरअसल भू-स्खलन एक भू-वैज्ञानिक घटना है, जिसमें पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण प्रभाव से चट्टान, मिट्टी और मलबे का एक बड़ा हिस्सा अचानक टूटकर ढलान से नीचे की तरफ गिरता है। भू-स्खलन की यह गति साल में कुछ इंच से लेकर कई मील प्रतिघंटे तक की भी हो सकती है। ऐसे भू-स्खलन भी रिकॉर्ड किए गए हैं, जो किसी व्यक्ति के सबसे तेज दौड़ने की गति से भी तेज घटते हैं यानी अगर भयावह भू-स्खलन हो तो आदमी बहुत तेज दौड़कर भी जरूरी नहीं है कि खुद को भी इससे बचा ले। भू-स्खलन एक धरातलीे हलचल है, जिसमें पत्थर, मिट्टी, मलबा सिर्फ टूटकर ही नहीं गिरते, बल्कि पानी की तरह बहने भी लगते हैं और इनके रास्त आने वाली हर चीज को अपने वेग से बहा ले जाते हैं। धरती में हमेशा भू-स्खलन की घटनाएं होती रही हैं, लेकिन जिस तरह से घटनाएं इन दिनों तेजी से बढ़ रही हैं, उससे साफ पता चलता है कि धरती की सेहत खराब है।
शायद इसी बात को ध्यान में रखकर कुछ साल पहले जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (जीएसआई) और ब्रिटिश जियोलॉजिकल सर्वे द्वारा मिलकर बनाए गए भू-स्खलन वार्निंग सिस्टम जिसे ‘रीजनल लैंडस्लाइड वार्निंग सिस्टम’ कहते हैं, को जल्द से जल्द भारत की उन संवदेनशील जगहों पर स्थापित करने की बात कही गई है, जहां अक्सर भू-स्खलन की घटनाएं घटती हैं। लेकिन अभी तक ये सिस्टम स्थापित नहीं हो सके। साल २०२५ की शुरुआत में इन्हें देश की कई जगहों पर स्थापित किया जाना है। पर जिस तरह से पिछले कुछ सालों में भू-स्खलन की घटनाएं बहुत ज्यादा बढ़ गई हैं, उससे वैज्ञानिकों को जल्द से जल्द यह सिस्टम लगाना होगा।
हालांकि, साल २०२० में जिस तरह से केरल में एक के बाद एक कई भू-स्खलन की घटनाएं हुई थीं, उसके बाद से जीएसआई ने परीक्षण और मूल्याकंन के लिए कुछ इलाकों में जिला प्रशासन को मानसून के दौरान भू-स्खलन पूर्वानुमान बुलेटिन जारी करना शुरू करवाया था, लेकिन भारत में अभी तक यह कारगर नहीं हुआ, क्योंकि देखा गया है तब ही कोई वार्निंग नहीं दी जाती, जब सचमुच ऐसी दहशतनाक घटना सामने आती है, जबकि अमेरिका सहित एक दर्जन से ज्यादा देशों में इस तरह के वार्निंग सिस्टम किसी हद तक कामयाब हो रहे हैं। इसलिए भारत को भी जल्द से जल्द इस सिस्टम को अपने यहां अपनाना होगा, ताकि हर साल भू-स्खलन की बढ़ती भयावहता पर काबू पाया जा सके।
गौरतलब है कि अमेरिका, ताइवान, हांगकांग, इटली और ब्रिटेन सहित दुनिया के २६ देशों में भू-स्खलन की पूर्व चेतावनी देने वाली प्रणाली २०२२ से ही काम कर रही है। किंतु भारत में अभी तक व्यावहारिक रूप में ऐसी कोई प्रणाली कारगर नहीं है, जबकि भारत में भू-स्खलन के संवेदनशील क्षेत्र दुनिया के कई देशों से कहीं ज्यादा हैं। भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण के मुताबिक, हिमालय, पूर्वोत्तर स्थित हिमालय की पहाड़ियां, नीलगिरि, पूर्वी घाट, विंध्य पर्वतीय इलाका भू-स्खलन के प्रति ये बेहद संवेदनशील क्षेत्र हैं। जीएसआई के मुताबिक, देश का करीब १३ फीसदी हिस्सा भू-स्खलन संवदेनशीलता के दायरे में आता है, इसलिए चाहिए कि सरकार इस समस्या पर युद्धस्तर से ध्यान दे और माना जाए कि ग्लोबल वार्मिंग के बाद हर आपदा बहुत तीव्रता से इंसान के नजदीक आ रही है और भयानक तरीके से डरा रही है।
(लेखिका विशिष्ट मीडिया एवं शोध संस्थान, इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर में कार्यकारी संपादक हैं)